शीला झुनझुनवाला : दैनिक हिन्दुस्तान की पहली महिला संपादक
श्रीमती शीला झुनझुनवाला को कहने को तो मैं ‘धर्मयुग’ से उनके लेखन की वजह से जानता हूं लेकिन मुंबई में उनके सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों से भी मैं परिचित रहा हूं।
उनके पति ठाकुर प्रसाद झुनझुनवाला (दोस्तों के लिए टीपी भाई लेकिन मेरे लिए सिर्फ भैय्या) और उनकी युगल जोड़ी को ‘सांस्कृतिक जोड़ी ‘के नाम से जाना जाता था।
वहां के कुछ लोगों का तो यहां तक दावा था कि अगर रामरिख मनहर ने ठिठोली में ही सही अपनी चिरपरिचित मशहूर हंसी में ही यह कह दिया कि टीपी भाई कहीं फंस गये हैं तो लोगों के चेहरे लटक जाया करते थे।
अब आप ही सोचिए उनके दिल्ली में तबादले की ख़बर ने उन्हें कितना मायूस किया होगा । उधर शीला जी को अपने सक्रिय पत्रकार की ज़िंदगी को लेकर यह फिक़्र सताये जा रही थी कि क्या मुझे दिल्ली में हाउसवाइफ बनकर ही रह जाना पड़ेगा।
ये सभी शुरुआती डर बहुत जल्दी काफूर हो गये।
दिल्ली आकर टीपी भाई अपने ऑफिस में व्यस्त हो गये,शीला जी घर गृहस्थी संभालने और बच्चों के दाखिले में मसरूफ हो गयीं।
अब कुदरत ने अपनी भूमिका निभानी शुरू की ।दिल्ली के संस्कृति प्रेमी उनके द्वार पर आने लगे ।जो लोग उनसे मुंबई में परिचित थे वे भी शिष्टाचार निभाने के लिए आने लगे ।ज़िंदगी तो गुलज़ार-सी दीखने लगी लेकिन कहीं खालीपन का भी एहसास हो जाता था।
शीला जी ‘ धर्मयुग’ में महिला पृष्ठ देखा करती थीं, इसलिए दिल्ली के लेखकों और लेखिकाओं से ज़्यादा परिचय न रहा हो लेकिन मैने इस बात की भरपूर कोशिश की कि दिल्ली में भी उनकी सोच और सक्रिय पत्रकारिता को वही सम्मान मिले जो मुंबई में ‘धर्मयुग’ में मिलता था।
लिहाजा उनका बहुत से लेखकों और लेखिकाओं से परिचय कराया जिन्होंने उन्हें यह महसूस ही नहीं होने दिया कि वे दिल्ली में अभी अभी आयी हैं । उनकी शीला जी के प्रति आदर,सम्मान और समर्पण की भावना रही । शीला जी की मेहनत और सभी तरह के लेखकों के सहयोग से पत्रकारिता जगत में उन्होंने दिल्ली में भी अपना उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण स्थान बना लिया।
मेरा शीला जी और टीपी भाई साहब के रवीन्द्र नगर स्थित घर पर आना जाना खूब होता था । यह संभवतया 1972 की बात है, मैं उन दिनों ‘दिनमान’ में काम करता था जहां स्ट्राइक चल रही थी।
एक दिन शीला जी ने बताया कि सेंट्रल न्यूज़ एजेन्सी के मालिक पुरी साहब महिलाओं की एक पत्रिका ‘अंगजा’ निकाल रहे हैं जिसके संपादन का दायित्व उन्होंने मुझे सौंपा है।
मैंने खुश होकर बधाई देते हुए कहा कि एक पत्रकार को इससे ज़्यादा और क्या चाहिए। शीला जी बोलीं,’यह काम इतना आसान भी नहीं है’।
परंतु मैंने कहा कि आपके लिए मुश्किल भी नहीं। कुछ सोचने के बाद बोलीं, लेकिन तुम्हें मेरा साथ देना होगा । मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा, बंदा सेवा में हाज़िर है, हमारी भी वेह्लापंथी दूर हो जायेगी।
वह मासिक पत्रिका थी। हम लोगों ने डम्मी बनानी शुरू कर दी। बीच-बीच में टीपी भाई साहब की भी सलाह ली। लेखकों के नाम तय किये।
मैंने कुछ कॉलम लिखने की ज़िम्मेदारी ले ली। मैटर कब से प्रेस भेजना शुरू करना है, हम लोगों ने निश्चित कर लिया। शीला जी की कुछ हद तक चिंता दूर हुई। उन तमाम लोगों ने भी सक्रिय सहयोग दिया जिन से मैंने शीला जी का दिल्ली आने पर परिचय कराया था।
अगले दिन सुबह शीला जी ने फ़ोन करके बताया कि मॉरिशस के पहले उच्चायुक्त रवींद्र घरभरण आये हैं और उनकी पत्नी पद्मा जी से मिलकर इंटरव्यू करना है जो बहुत ही विदुषी महिला हैं।
एक प्रश्नावली बना लो और जब तुम घर आओगे तो उसे फाइनल कर लेंगे। तुम्हारे भैय्या भी आ जायेंगे, उनकी सलाह भी ले लेंगे।
टीपी भाई साहब हर कदम पर हमें पूरा सहयोग दिया करते थे। निश्चित कार्यकम के अनुसार घरभरण दंपति से मिलने के लिए शीला जी के साथ अशोक होटल गये। शुरू-शुरू में वे वहीं रह रहे थे।
रवींद्र घरभरण ने दरवाज़ा खोला और दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। हमारे वहां बैठते ही पद्मा जी भी आ गयीं। भव्य और आकर्षक व्यक्तित्व।
रवींद्र जी हिंदी में बात कर रहे थे जबकि पद्मा जी अंग्रेज़ी में। रवींद्र जी ने बताया कि पद्मा जी के पुरखे तमिलनाडु से गये थे।
हम लोगों ने मॉरिशस के स्वाधीनता संग्राम, उसमें महिलाओं की भूमिका, शिक्षा, स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान उनका योगदान, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में पुरुषों की तुलना में कितनी सक्रिय हैं आदि पर विस्तार से चर्चा की।
अलावा इसके भारतीयता के प्रति उनकी विचारधारा, तीज त्योहारों में उनका रोल, धार्मिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में किसी खास धर्म के प्रति उनका झुकाव के अलावा यह भी पूछा कि रामायण, महाभारत की व्याख्या और टीका टिप्पणी करने वाले विद्वान वहां हैं कि नहीं।
इस पर रवींद्र घरभरण ने बताया कि हमारे स्वाधीनता संग्राम से लेकर युवाओं को प्रेरित करने में स्वामी कृष्णानंद सरस्वती की अहम भूमिका थी। चचा (प्रधानमंत्री सर शिवसागर राम गुलाम) उन्हें नैरोबी से मॉरिशस लाये थे। 1967 में वे मॉरिशस आ गये थे। उन्होंने चालीस स्वयंसेवकों की एक टीम बना कर उनके धार्मिक शिविर लगाये जिस में उन्होंने रामायण और गीता के साथ साथ दूसरे धार्मिक ग्रन्थों की महत्ता बतायी।
अपने तीज त्योहारों के बारे में बताया। शिवरात्रि पर मॉरिशस में बड़ा मेला लगता है जहां भारतीय मूल के लोग जमा होते हैं। उन्हें धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व के बारे में बताया। देश में महिलाओं की भूमिका को रेखांकित किया और इस प्रकार फ्रेंच संस्कृति की तरफ जाते युवा वर्ग ने भारतीय संस्कृति को आत्मसात किया।
स्वामी कृष्णानंद सरस्वती के आग्रह पर टीपी भाई साहब ने कई लोगों के सहयोग से रामायण की एक लाख प्रतियां मॉरिशस भिजवाईं। वास्तव में रवींद्र घर भरण पद्माजी जी की मदद कर रहे थे। इस प्रकार हमें पूरे मॉरिशस की विस्तृत जानकारी मिल गयी।
‘अंगजा’ के प्रवेशांक की इससे बढ़िया कवर स्टोरी दूसरी कोई हो ही नहीं सकती थी। सेंट्रल न्यूज़ एजेन्सी की अपनी वितरण व्यवस्था होने से यह प्रवेशांक देश भर में पहुंच गया। कुछ प्रतियां मॉरिशस भी भेजी गयीं।
पद्मा जी और रवींद्र घरभरण को भी पत्रिका खूब पसंद आयी। इसके बाद घरभरण दम्पति की झुनझुनवाला दंपति से निकटता बढ़ने लगी। घरभरण ग्रेटर कैलाश बी ब्लॉक की कोठी में आ गये और पार्टियों का दौर शुरू हो गया।
शीला जी और टीपी भाई साहब से सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन की मांग होने लगी। उनके घर के अलावा भी घरभरण दम्पति का इसरार रहता था कि दिल्ली में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी उन्हें न्योता जाये।
एक बार तो घरभरण दम्पति के साथ मॉरिशस के वित्तमंत्री रिंगगाडू और उनकी पत्नी भी पहुंच गये थे। रिंगगाडू बाद में मॉरिशस के राष्ट्रपति बने। चचा से भी दो बार मुझे घरभरण के घर पर मिलने का अवसर मिला और उनका ‘दिनमान’ के लिए इंटरव्यू भी किया जिसकी काफी चर्चा हुई।
जब तक हड़ताल रही मैं सुबह शीला जी के घर पहुंच जाता और हम लोग ‘अंगजा’ के अगले अंक की सामग्री तैयार करने में जुट जाते।
इस बीच झुनझुनवाला परिवार से मिलने वालों से कोई मुंबई से आ रहा था तो कोई किसी और जगह से।
उनके रवीन्द्र नगर वाले घर में पार्श्व गायक महेंद्र कपूर और मुकेश तो कभी संगीतकार राज कमल, नृतांगना मनीषा और गुरु कृष्ण महाराज से भेंट हुई।
गुलशन कुमार और रामरिख मनहर के अलावा कई पत्रकार-लेखक-संस्कृति कर्मी भी वहां मिला करते थे।
उनके साथ ही मैं पूसा रोड गिरधारी लाल सर्राफ के घर जन्माष्टमी के त्योहार पर आयोजित झाँकियाँ भी देखने जाया करता था। वहीं सेठ गिरधारी लाल का बेटा ओम प्रकाश सर्राफ भी मिला था जो टीपी भाई साहब के घर अक्सर आया करता था।
इसे मैं अपना सौभाग्य समझता हूं कि टीपी भाई साहब और शीला जी मुझे अपने घर का सदस्य मानने लगे थे ।
कई बार तो शाम और रात को भी उनके कई निजी मित्रों के यहां डिनर पर गया। ऐसे ही कई शुद्ध व्यक्तिगत कार्यक्रमों में मुझे महेंद्र कपूर को सुनने का मौका भी मिला।
‘अंगजा ‘ ने पाठकों के दिलों में महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। लेकिन लगता है कि पुरी साहब इस में होने वाले घाटे से घबरा गये और एक दिन महिलाओं की इस लोकप्रिय पत्रिका का प्रकाशन बंद हो गया।
शीला जी ने ‘अंगजा ‘ की कामयाबी के लिए दिन रात मेहनत की थी, इसलिए वे मायूस हो गयीं।
क्योंकि उनके पास पत्रकारिता का लंबा अनुभव था लिहाजा उन्हें हिंदुस्तान टाइम्स समूह की पत्रिका ‘कादम्बिनी ‘ में सहायक संपादक का नियुक्ति पत्र प्राप्त हो गया।
उन्होंने वहां जमकर काम किया और उनकी तरक्की संयुक्त संपादक के पद पर हो गयी। विधि का विधान देखिए कि कुछ समय के बाद जब मनोहर श्याम जोशी को ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ से हटाया गया तो उनके स्थान पर शीला जी को संपादक बनाया गया।
अपनी मेहनत, प्रतिभा और अनुभव की वजह से शीला जी ने ‘दैनिक हिंदुस्तान’ में संयुक्त संपादक के तौर भी काम किया। शीला जी उस समय पहली महिला पत्रकार थीं जिन्होंने ‘दैनिक हिंदुस्तान’ के शीर्ष पद को सम्भाला था ।
उन्होंने 15 वर्ष तक हिंदुस्तान टाइम्स के विभिन्न पदों पर रह कर यह सिद्ध कर दिया कि महिला पत्रकार किसी तरह से भी पुरुषों से कम प्रतिभाशाली और कम जिम्मेदार नहीं हैं।
अब देर सबेर घर पहुंचना मेरी आदत में शुमार हो गया था। कमोबेश यह भी निश्चित होता था कि शाम को यदि शीला जी और टीपी भाई साहब कहीं जा रहे हैं तो मुझे जाना ही जाना है।
कार भाई साहब खुद चलाया करते थे । कहते थे इसमें प्राइवेसी बनी रहती है। एक दिन टीपी भाई साहब बोले, ‘आओ त्रिलोक तुम्हें एक सेठ से मिलवाते हैं।’
देखता क्या हूं कि उनकी कार ने एक,तीस जनवरी मार्ग में डालमिया हाउस की कोठी में प्रवेश किया। कार रुकते ही एक सज्जन ने आकर उनसे हाथ मिलाया और दोनों हाथ जोड़ कर शीला जी को नमस्कार किया।
मेरा परिचय कराते हुए बोले,यह मेरा छोटा भाई है त्रिलोक दीप, साथ ही उनसे पूछ लिया कि संजय घर पर है । उन सज्जन से मेरा परिचय कराते हुए कहा कि ये सेठ विष्णु हरि डालमिया हैं और इतने में बाहर आयी महिला से भेंट कराते हुए कहा कि ये हैं ललिता जी, इनकी धर्मपत्नी।
अभी मुलाकात का दौर चल ही रहा था कि ड्रॉइंग रूम से एक युवक बाहर आये जिनसे मेरा परिचय कराते हुए कहा कि यह संजय हैं, इनका बड़ा बेटा।
संजय की तरफ मुखातिब होकर बोले, ‘यह त्रिलोक दीप हैं, ‘दिनमान’ में काम करते हैं, वहां स्ट्राइक होने के कारण ‘अंगजा’ निकालने में शीला जी का हाथ बंटा रहे हैं।’
मुझे संजय अपने साथ ड्रॉइंग रूम में ले गये। भैया विष्णु जी के साथ टेनिस खेलने लगे और शीला जी ललिता जी के साथ व्यस्त हो गयीं।
मैंने संजय जी को ‘दिनमान’ में अपने काम की जानकारी दी। मुझे लगा कि वह दूरदर्शी, अध्ययनशील तथा जिज्ञासु हैं। उन्होंने अपने काम के बारे में इतना ही बताया कि इस समय वे भरतपुर की डालमिया इंडस्ट्रीज का काम देख रहे हैं जो मुख्यतया ‘सपन ‘ घी का निर्माण करती है।
उन्होंने आशा व्यक्त की कि वे अपनी डालमिया कंपनी का और विस्तार करेंगे । मैंने टीपी भैया को संजय जी के विचारों के बारे में बताया तो उन्होंने कहा था कि वे केवल जिज्ञासु ही नहीं, महत्वाकांक्षी भी हैं। संजय अपने परिवार को उसी स्थिति में ले जाना चाहता है जैसी उनकी स्थिति 1947 के बंटवारे के समय थी। असंभव नहीं उसके दिमाग में कुछ योजनायें हों भी।
संजय जी के साथ मेरे विचार काफी हद तक मेल खाते थे इसलिए हमारी मुलाकातों का सिलसिला जारी रहा।
कम से कम हफ्ते में तो एक बार मिलते ही थे,कभी उनके ऑफ़िस में तो कभी घर पर। परिचित से अब हम दोस्त हो गये।
मेरे बच्चों के शादी विवाह में भी वे शिरकत करने लगे । मेरी बेटी मंजीत कौर की शादी में वे अपनी धर्मपत्नी इन्दु जी के साथ आये थे।
उस शादी में शीला जी भी कई बार पधारीं और मेरी पत्नी को न केवल ज़रूरी मशविरा ही देतीं बल्कि उनका हाथ भी बंटाती थीं। और भैया ने नाथू स्वीट्स के मालिक रमेश जी को फ़ोन करके न केवल बढ़िया मिठाई देने के लिए कहा बल्कि उसे निश्चित स्थान पर पहुंचाने का दायित्व भी सौंपा।
आज भी मेरी उस बेटी को नाथू स्वीट्स की मिठाइयां ही पसंद शायद इसलिए हैं , क्योंकि उनमें वह अपने टीपी ताऊ जी का आशीर्वाद महसूस करती है।
इस तरह दूसरे बच्चों की शादियों में भी शीला जी और भैया से आशीर्वाद प्राप्त होता रहा ।यह जो रिश्ता ‘दिनमान’ में हड़ताल और ‘अंगजा’ की शुरुआत से बना था वह दिनोंदिन मजबूत होता चला गया। मैं खुशनसीब हूं कि मुझे आज भी शीला जी का वही स्नेह प्राप्त है जिसका आरंभ करीब 50 बरस पहले हुआ था।
अगर उनके माध्यम से रवींद्र घरभरण और संजय डालमिया से न मिला होता तो न तो मैं ‘दिनमान’ के लिए घरभरण जी से विशेष संवाद प्राप्त कर पाता और न ही संजय डालमिया के पत्र ‘संडे मेल ‘का कार्यकारी संपादक ही।
सन् 1995 के मध्य में ‘संडे मेल ‘के प्रकाशन के स्थगित हो जाने के बाद जब सब लोगों की छुट्टी हो गयी तो संजयजी ने पहले मुझे डालमिया ब्रदर्स वाली कंपनी में महाप्रबंधक का पद दिया और बाद में अपने एनजीओ डालमिया सेवा ट्रस्ट में विशेष जिम्मेदारी सौंपी जहां से मैंने मई ,2017 में अवकाश ग्रहण किया।
इन सभी कार्यों और उपलब्धियों के लिए मैं शीला जी और टीपी भाई साहब को पूरा श्रेय देता हूं और एक तरह से उनका ऋणी हूं। भैया को जल्दी खोने का दर्द आज भी सीने में हूक बनकर उठता है जिसे मैं और किसी के साथ शेयर नहीं कर सकता। शीला जी का निरंतर मिलने वाला स्नेह ही आज मेरी थाती है, धरोहर है।
Rochak jankari.