मानवता के मानक : राम
अनुपम तिवारी ,लखनऊ
अचानक मन मे एक भाव उठा, रामनवमी का दिन है, क्यों न श्रीराम पर कुछ लिखा जाए। कलम उठाई, कागज सम्मुख रखा, राम पर आधारित समस्त विचारों को आवेशित करने का प्रयास किया। किंतु प्रयास फलीभूत नहीं हो पा रहा था। लगने लगा ऐसा क्या बचा है राम के चरित्र में जिसके ऊपर आदिकाल से अब तक नाना प्रकार के कवियों, विद्वानों, लेखकों आदि ने विचार कर शब्दों का जामा न पहनाया हो। ऐसा क्या लिख दूं जो रोचक भी हो, और कम से कम स्वविवेक में नया भी हो। विचारों की ऐसी आंधी चली कि मानो कागज तो उड़ गए मगर कलम वहीं जड़ हो गयी, विचारों ने ज्ञान के समंदर में गोते लगाना शुरू कर दिया। यही तो विलक्षणता है राम में, व्यक्ति जितना मनन करता है, उतना ही डूबता जाता है। और जब बाहर आता है तो कुछ न कुछ पॉजिटिव बदलाव खुद में पाता है।
एक सम्पूर्ण मानव, हर तरह के सद्गुणों से युक्त, वीरता का चरम, दया का सागर, प्रेम का जीवंत रूप, संबंधों की पाठशाला, किस किस का वर्णन करूं। जिस रूप को लिखने बैठूं, उसी में समा जाने का मन करने लगता है। ‘राम’ नाम ही इतना अद्भुत है कि इसको लिखने या उच्चारण मात्र से मानसिक शांति का हर बार एक नया आयाम दिखता है। यह परम पुरुष ऐतिहासिक रहा है या मात्र कवियों की कल्पना? ये सब विवाद व्यर्थ लगने लगते हैं। क्योंकि राम का नाम, उनका चरित्र, मानव को मानवता के उस चरम तक ले जाता है, जिसकी चाह इस उपमहाद्वीप के प्रायः सभी मनीषियों को चिर काल से रही है। बुद्ध हों, महावीर हों, तुलसी हों, कबीर हों, नानक हों या फिर आधुनिक भारत के कर्मयोगी गांधी ही क्यों न हों, ‘राम’ नाम ने सबको राह दिखाई है और सभी ने राम को मर्यादा और सद्गुणों का एक मानक स्तम्भ मान कर ही, अपने ज्ञान को जन-जन तक पहुचाने का कार्य किया है। राम नाम मे ऐसा क्या है? जिसके मोह से कोई विद्वान बच न पाया?
कहीं पढ़ा था, “राम…… दो अक्षरों से बना यह शब्द सनातन ऋषियों द्वारा बनाये गए सभी मन्त्रों की शक्ति रखता है। ‘रा’ और ‘म’ ये दो ऐसे अद्भुत शब्द हैं जिनमे से प्रथम यानि ‘रा’ का उच्चारण समस्त पापों को मनुष्य से दूर ले जाता है वहीँ ‘म’ का उच्चारण उन पापों को मनुष्य की और वापस आने से रोक देता है।“
राम नाम का उच्चारण मनुष्य को सद्गुणों के लिए प्रेरित करता है। उसको अपने लोभ से, अपनी इच्छाओं से या यूँ कहे कि सांसारिक माया से दूर ले जाता है। जगत से दूर स्व गुणों को उभारने का संबल भी देता है तो स्वयं से इतर सम्पूर्ण जगत की सेवा में प्रस्तुत भी करता है। एक अजीब सा द्वंद्व है। एक दुधारी तलवार है, जो काटती तो है पर खून की जगह मनुष्य का क्रोध, लोभ, मोह आदि बहा देती है। बच जाता है सिर्फ सत्य और ज्ञान।
किसी समान गुण, प्रताप वाले व्यक्ति से तुलनात्मक अध्ययन शायद राम को अधिक समझने में सहायक हो सके, इसी भावना से भरकर जब दृष्टिपात करते है तो तत्कालीन कोई व्यक्ति राम के आसपास भी नही दिखता। कुछ हद तक, एक और महानायक कृष्ण उनके निकट दीखते हैं। वह भी अवतारी पुरुष कहे गए हैं। परंतु गूढ़ता से देखने पर कृष्ण भी राम को ही पूर्ण करने का प्रयास मात्र दिखते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि राम अपूर्ण थे, वह तो वाल्मीकि के अनुसार सभी 16 कलाओं के ज्ञाता थे। पर कृष्ण ने भी राम को आधार बना, जब कुछ नई कलाएं जोड़ीं, तो वह कल्पनातीत हो गए। परंतु लेखकों ने कृष्ण और राम में साम्यता करने का सदैव प्रयास किया है, वह यह भूल जाते हैं कि इनके युगों में अंतर था। साहित्यकार विष्णु खरे इस बात को समझाने का प्रयास करते हुए कहते हैं, ” मर्यादा पुरुषोत्तम राम मानवीय हैं, राम और कृष्ण में जो मौलिक अंतर दिखता है, वह शायद त्रेता और द्वापर की सभ्यताओं के टकराव का परिणाम हो। “ मेरी समझ मे कृष्ण की जो महामानवीय छवि गढ़ी गयी उसका भी आधार कहीं न कहीं राम ही थे।
राम सरीखे युगपुरुष कदाचित, समय के बंधनों से मुक्त हैं। वह किसी क्षेत्र, धर्म, भाषा या राज्य की सीमा से बंधे नही रह सकते। वह सिर्फ कल्पना होते तो समय की इस नितांत बहती धारा में कब के बह चुके होते। समय बलवान होने के साथ-साथ क्रूर भी होता है। एक झटके में सब बदल देता है। सिंधु सभ्यता का उदाहरण सटीक है, सिंधु के किनारे बसे, अति विकसित जनों को इसी भारत भूमि ने कितनी आसानी से शताब्दियों तक भुलाए रखा। अब जब उनके बारे में पता चला है तो समय की क्रूरता ने विवश कर दिया है, उनको न हम पढ़ सकते हैं, न शर्तिया तौर पर कुछ बता सकते हैं। उनका इतिहास कुछ साक्ष्यों पर आधारित सिर्फ एक अपूर्ण अनुमान बन कर रह जाता है।
मगर राम अमर हैं, वह सिर्फ एक कथानक नही हैं, सिर्फ एक इतिहास नहीं हैं, सिर्फ एक काव्य के नायक नहीं हैं। इस उपमहाद्वीप बल्कि सम्पूर्ण मानवता को उसके सद्गुणों की ओर, सत्य की ओर प्रेरित करने वाले ऐसे अनुपम माध्यम हैं, जो विगत कई शताब्दियों से अनवरत और आश्चर्यजनक ढंग से विद्यमान हैं। इसमें लेश मात्र भी संशय नहीं है कि राम सरीखे महामानव, मानवता के आदर्श और मानक के रूप में, युग युगांतर तक ही नहीं, अपितु तब तक अक्षुण्ण रहेंगे जब तक मानव नाम का जीव इस धरा पर या उसके परे भी जीवित है।
जय श्री राम।।