भारत के शाश्वत जीवन मूल्य
अपना राष्ट्र भारत वर्ष, अत्यन्त प्राचीन राष्ट्र है। हमारी संस्कृति अत्यन्त गुणवत्ता सम्पन्न है। किसी भी राष्ट्र के कुछ महत्वपूर्ण जीवन मूल्य होते हैं, जो उसकी परम्परा से आबद्ध होते हैं। यहाँ पर मूल्य (Value) का अर्थ कीमत या Price नहीं है। कीमत (Price) किसी वस्तु की होती हैं, मूल्य (Value) तथा जीवन मूल्य को भौतिक रूप से नापा नहीं जा सकता। इसको समझा जा सकता है जैसे शरीर में आत्मा होती हैं, आत्मा के बिना जीव व शरीर को मृतक माना जाता हैं, उसी प्रकार जिस राष्ट्र व समाज के जीवन मूल्य नहीं होगें, उसे मृतक समान ही समझा जाना चाहिए।
हमारे राष्ट्र की शानदार परम्परा रही है। चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरू व उन्हें राज्य को दिलाने में तथा राजा बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले आचार्य चाणक्य कभी किसी महल में नहीं रहे, वे अपनी कुटिया में रहे। जब विदेश से कोई विशेषज्ञ/अतिथि राजा चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरू व उनके प्रधानमन्त्री चाणक्य से मिलने आया तो उन्होने एक दीपक बुझाकर, दूसरा दीपक जला दिया। विदेशी अतिथि ने जब पूँछा कि एक दीपक क्यों जलाया, दूसरा क्यों बुझाया, तो चाणक्य का उत्तर, आज के लोक सेवकों के लिए अत्यन्त प्रेरणादायक है। चाणक्य ने विदेशी अतिथि को बताया था वह दीपक जो मैंने बुझाया और दूसरा जलाया, एक दीपक राजकार्य के लिए है और दूसरा निजी कार्य के लिए।
हमारे यहाँ गुरुकुल की शिक्षा की परम्परा रही है। सभी विद्यार्थी, समाज के सहयोग से गुरुकुल में रहते थे। वह काल ब्रम्हचर्य व्रत का काल होता था। उस समय गुरुकुलों में शस्त्र व शास्त्र, दोनों की शिक्षा दी जाती थी। हमारे यहाँ स्मृतियाँ राजाओं ने नहीं बनायी, लंगोटी लगाने वालो ने स्मृतियाँ बनाई थी। राजा के ऊपर भी अनुशासन था, नियमों-संहिताओं का पालन करना उसके लिए आवश्यक था।
कालान्तर में विदेशी आक्रान्ताओं से पराजय के साथ-साथ, विशेषतः पश्चिमी सत्ता, जो ईस्ट इन्डिया कम्पनी व फिर ब्रिटिश शासन में पूरी समाज व्यवस्था नष्ट करने के प्रयास हुये। फिर अंग्रेजी सत्ता व पाश्चात्य संस्कृति ने हमारे अपने समाज को तथा पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति के तीव्र प्रसार ने हमारी जीवन शैली को बदलने की कुत्सित कोशिश की।
वैज्ञानिक उन्नति, औद्योगिक विकास और अब बहुरांष्ट्रीय कम्पनियों के व्यापक प्रचार-प्रसार ने हमारे नैतिकता परक, परम्परागत मूल्यों को अस्थिर कर दिया। उपभोक्तावादी संस्कृति के मकड़जाल में समकालीन पीढ़ी ऐसी त्रस्त है कि जिसके लिए, फिर अपने शाश्वत जीवन-मूल्यों का ध्यान रखकर, उन्ही पर लौटना ही होगा।
हमारी संस्कृति मूलतः त्याग व संतोष का मार्ग दिखाती है।
“ईशावास्य मिदं सर्वं यत्किंचगत्यां जगत।
तेन व्यक्तेन भुंजीथा, मा गृध कस्यस्विद् धनम्।।“
“ईशोपनिषद” में कहा गया है कि इस पूरे ब्रहमाण्ड में जो भी जड़ चेतन रूप वस्तु है, वह सब ईश्वर के द्वारा व्याप्त है। उस ईश्वर को ध्यान में रखते हुये त्यागपूर्वक सांसारिक वस्तुओं का भोग करो, उसमें आसक्त मत होओ। भोग्य पदार्थ (धन) किसी के नहीं हैं।
संत कबीर ने कहा था-
“गोधन गजधन बाजिधन और रतनधन खान।
जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।।“
यानि हमारे समाज में आरम्भ से धन सम्पत्ति के सम्बन्ध में, संतोष का दृष्टिकोण ही था। हमारे पुरखे यह मानते थे कि मनुष्य का अधिकार, केवल उतने धन पर ही होता है, जितने से उसका पोषण हो सके।
हमारे समाज में महात्मा गाँधी जी का जीवन, आधुनिक कालखण्ड में आदर्श माना जाता है। वे स्वयं अत्यन्त सादगी का जीवन जीते थे, उन्होने सम्पत्ति के विषय में ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त को समाज के लिए अपरिहार्य कहा था।
भारत देश का चिन्तन सारे संसार को एक मानकर चलता रहा है।
“अयं निजः परोवेति, गणना लघु चेतसाम्।
उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।“
महोपनिषद (अध्याय 4, श्लोक 71)
यह मेरा है, यह पराया है, ऐसा समझने वालों की गणना क्षुद्र प्राणियों में होती है। उदार चरित्र के मानव सम्पूर्ण वसुधा तल पर पले प्राणियों में पारिवारिक दृष्टि रखकर समदर्शी होते है।
हमारे यहाँ मंत्रदृष्टा ऋषियों और तत्व चिंतक मनीषियों ने सरल जीवन को ही श्रेष्ठ बताया था।
परन्तु आधुनिक पाश्चात्य प्रभाव के कारण, जो सामाजिक मूल्यों, तथा जीवन-मूल्यों में क्षरण हुआ है, वह चिन्ता का विषय है। मूल्यों का हृास, किस प्रकार से कुरीतियों को जन्म दे सकता है और सामाजिक जीवन में विकृतिं पैदा कर सकता है, यह पिछले कुछ दशकों में पली-बढ़ी समस्याओं से स्पष्ट होता है।
आजकल समाचार पत्रों व दृश्य-श्रव्य माध्यमों में जो समाचार बहुतायत में आ रहें हैं वे समाज में व्याप्त तमाम बुराइयों, विभिन्न कोटि के जघन्य अपराधों को जिनमें हत्या, बलात्कार, डकैती, लूट, घूसखोरी, भ्रष्टाचार आदि विषय प्रधानता से आते हैं।
शिशुओं, बालकों व जनसामान्य के चरित्र निर्माण के लिए कपास- सूत-कपड़े का उदाहरण समीचीन है।
यदि कपास उत्तम गुणवत्ता का हो तथा सूत भी योग्य हाथों से बनाया जायें तथा फिर कपड़ा भी सक्षम लोग बनायें तो ही समाज का भला होगा। मेरा आशय समस्त समाज के नैतिक चरित्र के निर्माण से है।
मुझे याद है एक प्रार्थना हमारे विद्यालयों में नित्य प्रातः करायी जाती थी-
वह शक्ति हमें दो दयानिधे कर्तव्य मार्ग पर डट जायें।
पर सेवा, पर-उपकार में हम, जगजीवन सफल बना जायें।।
ऐसी प्रार्थनाओं से व अपने आदर्श स्वरूप शिक्षकों की प्रेरणा हमें शक्ति देती थी।
भारत का मूल चरित्र, सरल-सुस्पष्ट जीवन-पद्धति का है। हमारे जीवन-मूल्य, हमारी महान संस्कार यात्रा का प्रमाण हैं। हमें अपने नई पीढ़ी को, अपने-अपने घरों, परिवारों, गाँवों, मुहल्लों में नैतिकता पर बल देने की शिक्षा देना चाहिए। जैसी हमारे पूर्वजों को परम्परा रही है। ऋषियों-मुनियों से लेकर महात्मा गाँधी ही हमारे जीवन-मूल्यों के प्रतीक है
Bazar ne jeevan _muly me nihit santosh aur tyag ko nigalane ke liye taiyar hai, ham usi or aage chal chuke Hain.