गांधी जी का जादुई स्पर्श
गांधीजी ने इलाहाबाद स्टेशन पर डॉ. सुचेत गोइन्दी के सिर पर ऐसा जादुई हाथ रखा कि उनका जीवन ही बदल गया। वह आजीवन ब्रह्मचर्य और सत्य-अहिंसा का पालन करते हुए समाज को सचेत करने में लगी रहीं।
गांधी से पहली मुलाकात
‘सन् सैंतालिस, सितम्बर का वह दिन। सुबह जंक्शन शांत था। घर के मेरे कमरे में हम दोनों का मन मेरा और सन्तोष दीदी का कुलांचे मार रहा था। शहर में काफी हलचल थी, बापू को इलाहाबाद जो आना था। कुछ क्षणों के लिए हमें भी लगा कि वह कैसे होंगे? वैसे मेरे पिता जी ने जो कुछ भी बताया था, मेरे हृदय में वैसी ही छवि बनी हुई थी। मैं क्रास्थवेट कालेज में पाँचवीं क्लास की छात्रा थीं। यही कोई 11-12 साल की उम्र। हमारी दीदी भी गांधी के सानिध्य में आ चुकी थीं। पिता भगवान सिंह गोंइन्दी जी के आह्वान पर 1921 में उच्च शासकीय सेवा से त्यागपत्र देकर स्वतंत्रता संग्राम में तन-मन से जुट गये। वे गांधी जी के बहुत प्रिय थे। माता अनंत कौर जी समेत हमारा पूरा परिवार गांधी जी के आदर्शों पर चल पड़ा था। चम्पारन से दिल्ली जाने की सूचना महात्मा गांधी जी ने पिता जी को पहले से ही दे रखा था। गांधी ने पिता से यह भी कह रखा था कि अपने छोटे बच्चों को भी साथ में लाना। मैं भी बच्चों को देख लूंगा।
गांधी जी को जिस दिन इलाहाबाद पहुंचना था, वह सोमवार का दिन था। गांधी जी सोमवार को बोलते नहीं थे। मौन व्रत रखा करते थे। पिता जी मुझे और दीदी को साथ लेकर रेलवे जंक्शन बड़ी स्टेशन पहुंचे।
गांधी जी की एक झलक पाने के लिए काफी भीड़ जमा थी। स्टेशन पर एक खास बात देखने को मिली कि इतने लोगों के होने के बावजूद धक्कामुक्की नहीं थी।
दोपहर के बाद ट्रेन आकर रुकी। पिता जी हम दोनों को लेकर उस बोगी में पहुंचे, जहां गांधी जी बैठे थे। पिता ने परिचय कराया। कमल दीदी को तो पहले से ही जानते थे। कुछ ऐसे क्षण होते हैं जिन्हें भूला नहीं जा सकता है।
महात्मा नाम तो सुना था,लेकिन वह इस नाम से भी बड़े दिखे। भव्य ललाट। तन पर सिर्फ धोती, दिव्य चेहरा। ट्रेन की सामान्य बोगी पर यह गुमसुम बैठे थे। दुनिया की बड़ी से बड़ी हस्ती मेरे सामने थी। मैं खामोश थी। उन्हें महसूस कर रही थी.
गांधी जी ने जैसे ही अपना हाथ मेरे सिर पर रखा, ऐसा लगा कि जैसे कोई पुंज आत्मा प्रवेश कर गयी हो और सारा अंधकार मिट गया हो। मन परिवर्तित हो गया। देशप्रेम का समर्पण जगा। भावनाएँ नहीं रुकी और आंखें छलछला आईं।
ट्रेन काफी देर तक रुकी रही। मैं वहां से लौटी तो जरूर, लेकिन खाली हाथ नहीं, गांधी से मिलने के बाद गांधी के आदर्शों पर चल पड़ी। कभी पीछे मुड़कर देखा नहीं।
अपना कुछ रहा नहीं। सोना, खाना जगना, पढ़ाई-लिखाई सब देश के लिए। पढ़ाई के दौरान ही गांधी के सपने को पूरा करने की राह पकड़ ली।
वैसे इसके पहले हमारे पिता भगवान सिंह प्रतापगढ़ में नौकरी छोड़ गांधी का साथ पकड़ चुके थे। परिवार में पहले से ही गांधी को सुनती आ रही थी, लेकिन मिलने के बाद उसी रास्ते पर आज तक चल रही हूं।‘
निर्भीकता की मिसाल
उन्नीस सौ छिहत्तर में उच्च शिक्षा विभाग ने इनके अद्भुत साहस और योग्यता को देखते हुए रामपुर में राजकीय महिला महाविद्यालय में प्राचार्या की बागडोर सौंपी।
चौदह साल तक इस महाविद्यालय में बड़े ही मनोयोग से उत्तरदायित्व को संभाला। एक अपरिचित स्थान एवम् अपरिचित वातावरण में बालिकाओं के अधूरे सपनों को पूरा किया।
इस महाविद्यालय को अनुशासन, स्नेह एवम् ज्ञान की जलधारा से सिंचित किया। इसके पहले ज्ञानपुर डिग्री कालेज में लड़कों ने जब हंगामा किया तो निर्भीकता के साथ उस लड़के के खिलाफ गवाही देने कचहरी अकेले पहुंच गई थीं। दादा धर्माधिकारी के सचेत करने पर भी, उनकी ही नहीं, कभी किसी की नहीं सुनी।
चुनौतियों को स्वीकारने की अद्भुत क्षमता
आगे चलकर सुचेत गोइन्दी ने बालिकाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया। समाज में उपेक्षित वेश्याओं की लड़कियों पर भी गहरी चिन्ता रही।
दिल्ली की एक सामाजिक संस्था थी। उसी संस्था की एक सदस्या से उनकी मुलाकात इलाहाबाद के कल्याणी देवी में हुई, जिन्होंने कहा कि वेश्याओं की बालिकाओं को पढ़ाना चाहती हॅू।
सुचेत जी ने भी दिलचस्पी ली और चल पड़ी ऐसी गलियों की ओर जहां भले पुरुष भी जाने से थर्राते हैं। कहने लगीं, हमने देखा कि पाँच साल की लडकियों का अपहरण कर उन्हें वेश्या बना दिया जाता है। सच, नींद नहीं आई। उनको पढ़ाने हेतु विद्यालय के लिए डीएवी एवम् कल्याणी देवी में प्रयास किया। सफल भी रही।
स्थानीय लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि ऐसे बच्चों को हमारे यहां पढ़ाने से बदनामी होगी। विरोध किये जाने पर लोकसेवक की इमारत में पढ़ाया जाने लगा।
कुछ दिन लड़कियां आतीं और कुछ दिन न आती। जब बुलाने जाती, कहने लगतीं, ‘हमारी बेटी पूजा में गई है, कुछ दिन में आ जायेगी।‘ कब आयेगी? उत्तर न मिलता। आर्थिक तंगी और पेशेवर होने के कारण उनके माता-पिता लड़कियों को पढ़ाने में सहयोग नही दे पाये।
कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट की उप्र प्रान्तीय सलाहकार की समिति सदस्य रहकर गांधी के सपने पूरे करने में प्रयासरत् हैं।
इलाहाबाद के आजादी बचाओ आन्दोलन भी काफी समय से सक्रिय रहीं, जो गांधी विचारधारा से जुड़ा हुआ है। गोइन्दी ने 1995 में उप्र शिक्षा सेवा आयोग में पुनर्नियुक्ति होने पर भी नौकरी नहीं की। द
लित उत्थान के लिए एक लाख रूपये जीपीएफ से देकर सदियापुर में कमल गोइन्दी नेशनल स्कूल खोला। ‘अनन्त शिक्षा निकेतन‘ के साथ ही आश्रम जमुनीपुर कोटवा में सतत् सहायक हैं।
गोइन्दी जी लगातार पच्चीस वर्षों से समाज में फैल रहे सांस्कृतिक प्रदूषण पर बोलकर लोगों को सचेत करती आ रही हैं।
‘आजादी के सात दशक बीत गये। देश को कितनी बार हिचकोले लेते देख रही हूं। बापू ने जिस भारत की कल्पना की थी, उसी को आज तक ढूंढ रही हूं। सच, सिर पर गांधी का हाथ रखना मानों कोई पुंज आत्मा का प्रवेश था, जिसने हमें सत्य, ईमानदारी और अहिंसा के रास्ते पर चलने की सीख दी है।‘