रोजगार, स्वास्थ्य, जीवन स्तर, राष्ट्रीय आय और आर्थिक विकास का सहसंबंध और भारतीय अर्थव्यवस्था

रोजगार
डॉ. अमिताभ शुक्ल

आर्थिक विकास न तो ईश्वर का वरदान है और न जादुई छड़ी के माध्यम से प्राप्त होता है। दूरदर्शितापूर्ण नीतियों,  संसाधनों के समुचित उपयोग,  रोजगार एवं उत्पादकता में वृद्धि,  स्वास्थ्य एवं शिक्षा तथा अधिसंरचनाचत्मक सुविधाओं के विकास के द्वारा प्राप्त किया जाता है।

लेकिन, आजादी के 73 वर्षों के बाद भी देश की अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति दुर्भाग्य जनक है। आम आदमी का जीवन केवल उसके परिश्रम के द्वारा संचालित हो रहा है। स्वास्थ्य और शिक्षा की स्थिति बदतर है। अधिसंरचनात्मक सुविधाओं का विकास औद्योगिक घरानों को सुविधा प्रदान करने के लिए बड़ी तेजी से किया गया है और किया जा रहा है। आम आदमी के उपयोग में आने वाली सड़कों और परिवहन सुविधाओं के हाल भी बदतर हैं।

करोड़ों और  खरबों रुपयों की लागत से निर्मित मार्गो और हाईवे के विकास और विस्तार के मूल में उद्योगों को सुविधाएं प्रदान करने का उद्देश्य है। मुनाफा प्रदान करने वाले वाली रेलवे,  रेलवे स्टेशनों और हवाई अड्डों का निजीकरण आम जनता के हितों पर कुठाराघात है। जो मुनाफा सरकारी खजाने में जाकर लोक कल्याणकारी कार्यों में वह किया जाना चाहिए, उसे चंद हाथों में सौंपा जाना देश की 140  करोड़ जनता के हितों के विपरीत है।

शिक्षा और स्वास्थ्य की गुणवत्ता और आर्थिक विकास के मध्य संबंध

अर्थशास्त्र के बुनियादी सिद्धांतों में यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित है कि शिक्षा और स्वास्थ्य में किया गया निवेश आर्थिक विकास के लिए सकारात्मक परिणाम उत्पन्न करता है। लेकिन भारत में उच्च शिक्षा और स्वास्थ्य पर राष्ट्रीय आय का 2% ही व्यय किया जाता है। सरकारी स्कूलों और शासकीय अस्पतालों के स्थान पर निजी शिक्षा और निजी स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा दिया जाना विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की दीर्घकालीन नीतियों के भारत सरकार पर दबाव का परिणाम है जिसके दुष्परिणाम आम जनता भोग रही है।

“अर्थशास्त्री राजनेता नहीं होते और राजनेता अर्थशास्त्री नहीं होते”

इन स्थितियों में देश की योजनाएं बनाने में विशेषज्ञ अर्थशास्त्रियों का योगदान कम है और सरकारी अर्थशास्त्रियों की भूमिका अधिक है और क्रियान्वयन राजनीतिक व्यक्तियों और प्रशासनिक अधिकारियों के हाथों में केंद्रित है,  जिसके परिणामस्वरूप सुविचार द्वारा निर्मित अच्छी आर्थिक नीतियों का क्रियान्वयन भी ठीक ढंग से नहीं हो पाता तब उनके सुपरिणाम कैसे प्राप्त होंगे? स्वास्थ्य पर निवेश के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय आकलन है कि,  स्वास्थ्य पर खर्च किया गया पैसा 10 से 20 गुना रिटर्न देता है, अर्थात, एक रुपया व्यय करने पर उसके 20 गुना सार्थक परिणाम प्राप्त होते हैं। लगभग इस प्रकार के ही निष्कर्ष शिक्षा पर किए गए विनियोग और उनके दीर्घकालीन लाभों के हैं जिनसे रोजगार, उत्पादन और राष्ट्रीय आय में वृद्धि होकर आर्थिक विकास का उच्चस्तर प्राप्त होता है। इसके बावजूद वर्ष 2015 –  16 तक देश में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च मात्र 1.0 से 1.18 % तक था।

भारत के आर्थिक विकास की वास्तविक तस्वीर

वर्ष 2018  में विश्व बैंक द्वारा 151 देशों के मानव पूंजी सूचकांक में भारत का स्थान 115वां था। इसी प्रकार,  वर्ष 2019 में संयुक्त राष्ट्र सस्टेनेबल विकास रिपोर्ट में 156 देशों में भारत का स्थान 140वां था, और वर्ष 2020 के “हैप्पीनेस इंडेक्स” में 156 देशों में भारत का स्थान 140 वां था। पाकिस्तान का स्थान भारत की अपेक्षा उच्च था। हाल ही में वर्ष 2020 के “वर्ल्ड हंगर इंडेक्स” में भारत का स्थान 94 वां है’, जबकि, पाकिस्तान 88 वें और बांग्लादेश 75 वें स्थान पर है। इस रिपोर्ट में भारत को भुखमरी की गंभीर श्रेणी में रखा गया है।

स्थिति यह है कि,  इससे 1 वर्ष पूर्व की रिपोर्ट की तुलना में भारत की स्थिति में कोई सुधार परिलक्षित नहीं होता है। निष्कर्ष यह बताते हैं कि भारत की 14% जनसंख्या कुपोषित है, अर्थात मोटे तौर पर यह कुल जनसंख्या का 14- 15  प्रतिशत है।

देश में रोजगार के अवसरों में निरंतर कमी होना और बेरोजगारी दर का 5% से ऊपर स्थिर रहना दर्शाता है, कि रोजगार वृद्धि के लिए कोई सार्थक प्रयास नहीं हुए है। जिस देश में युवा आबादी 50% से अधिक हो वहां बेरोजगारी की स्थिति चिंताजनक है और सहज रूप से इसका संबंध लोगों के आर्थिक स्तर, और  जीवन स्तर पर होना स्वाभाविक है।

रोजगार का ढाँचा

देश की श्रम क्ति 48.7 करोड़ का 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में है, और असंगठित क्षेत्र में वेतन और दिहाड़ी के निम्न स्तर और इस के फलस्वरूप जीवन स्तर के स्वरूप को संतोषजनक नहीं माना जा सकता है।

वेतन वृद्धि से गुणवत्तापूर्ण जीवन का लाभ मात्र 15%  शासकीय कर्मचारियो को प्राप्त होता है,  जिन पर सरकारों की विशेष कृपा होती है और उनके लिए महंगाई स्तर में वृद्धि के अनुरूप महंगाई भत्ता और प्रत्येक 10 वर्ष में वेतन आयोग के द्वारा वेतन वृद्धि का प्रावधान होता है। अतः इस 15% जनसंख्या और शेष संपन्न अथवा व्यवसायिक वर्ग के जीवन स्तर और विलासिता में वृद्धि को क्या देश का आर्थिक विकास माना जाना चाहिए?

 स्वास्थ और औसत आयु

उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि,  बहुसंख्यक आम जनता की सोचनीय स्थिति के बावजूद आर्थिक विकास के स्तर और वैज्ञानिक और स्वास्थ सुविधाओं की स्थिति में सुधार का परिणाम यह हुआ है कि , पिछले तीस वर्षों में भारत में औसत आयु में 10 वर्ष की वृद्धि हुई है, जो 59.6 वर्ष से बढ़कर 70 .8 वर्ष हो  गई है।

केरल द्वारा शिक्षा सुविधाओं का आधुनिकीकरण

हाल ही में केरल सरकार द्वारा 693 करोड रुपए के “हाईटेक स्कूल प्रोजेक्ट” के द्वारा प्रदेश के सभी सरकारी स्कूलों का तकनीकी उपकरणों से डिजिटलाइजेशन कर दिया गया है। केरल के आर्थिक विकास के स्तर से हम अवगत हैं और शिक्षा के क्षेत्र में किए गए इस निवेश और आधुनिकीकरण के दीर्घकालीन  सुपरिणाम वहां की अर्थव्यवस्था में प्राप्त होंगे। लेकिन, शेष राज्यो और विशेषकर बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की स्थिति बदतर है, और परिणामस्वरूप, इन राज्यो की अर्थव्यवस्थाओं की बदतर स्थितियां हैं। राज्यों के खजाने खाली हैं और प्रतिवर्ष खरबो रुपयों के ऋण बाजार से प्राप्त कर प्रशासनिक व्यय किए जा रहे हैं।

स्वास्थ्य सुविधाएं और आर्थिक विकास

नोबेल पुरस्कार विजेता एंगस टीडन ने वर्ष 2013 में लिखी पुस्तक “महान पलायन: स्वास्थ्य, धन और असमानता” में 19वीं शताब्दी की कोलेरा महामारी और बीसवीं शताब्दी की फ्लू महामारी का विश्लेषण  किया है और यह प्रतिपादित किया है कि इन महामारियो को अधिसंख्य यूरोपीय देशों ने आर्थिक विकास के लिए खतरे के रूप में देखा और सार्वजनिक स्वास्थ प्रणाली को विकसित करने पर निवेश प्रारंभ किया और इसके पश्चात के दशकों में यूरोप में तेजी से बढ़ी जीवन प्रत्याशा और आर्थिक वृद्धि मजबूत स्वास्थ्य सेवाओं और स्वस्थ जनसंख्या का सुपरिणाम है।

कोरोना के दुष्प्रभाव, भारत के लिए चेतावनी और सुधार की आवश्यकताएं

उपरोक्त संदर्भ, विश्लेषण और हाल की वैश्विक त्रासदी में  भारत की स्वास्थ्य सेवाओं की वास्तविकता यह स्पष्ट कर देते हैं, कि आर्थिक विकास ईमानदार प्रयासों से ही प्राप्त होगा। इस त्रासदी ने स्वास्थ सुविधाओं के कमजोर ढांचे की स्थिति स्पष्ट कर दी है।

शिक्षा और उच्च शिक्षा का कमजोर ढांचा भी स्पष्ट है,  अतः देश के नीति निर्धारकों को देश के भावी विकास और उसमें आने वाली मुख्य बाधाओं के रूप में शिक्षा और स्वास्थ्य समस्या को देखना चाहिए और एक अत्यंत सुदृढ सार्वजनिक स्वास्थ्य और सार्वजनिक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाए जाने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उच्च शिक्षा में नई शिक्षा नीति कई बार बन चुकी हैं, लेकिन विश्वविद्यालयों में सुविधाओं और गुणवत्तापूर्ण शिक्षण और शोध के अभाव, योग्य शिक्षकों के अभाव से सब वाकिफ हैं।

“स्किल डेवलपमेंट” के नाम पर चलाए गए भारी भरकम प्रोजेक्ट्स के क्या परिणाम हुए? ज्ञात नहीं और इस भीषण कोरोना काल में सर्वाधिक प्रभावित करोड़ों प्रवासी श्रमिकों को स्थानीय स्तर पर रोजगार उपलब्ध कराने के लिए बनाए गए 1000 करोड रुपये के फंड में से कितने श्रमिकों को स्थानीय स्तर पर रोजगार प्राप्त हुए हैं?  इसका कोई भी आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। अर्थात, भीषण कोरोना त्रासदी से जनसंख्या पर हुए दुष्परिणामों के बाद बनाई गई नीतियों और भारी-भरकम बजट का कोई परिणाम प्राप्त होता नहीं दिखाई दे रहा है।

निश्चित रूप से यह सारी बाधाएं देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक हैं, और भविष्य में आम जनता के जीवन स्तर और देश के आर्थिक विकास के लिए इन सारे प्रश्नों और समस्याओं को हल किए बिना 24  प्रतिशत की नकारात्मक विकास दर को पटरी पर आने में भी  समय लगेगा और “बेहतर आर्थिक विकास का स्तर मंदिरों के निर्माण और नारों से संभव नहीं है”। यह देश के विकास की चिंता करने वालों को समझ में आ जाना चाहिए।

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