कर्म वही, परंतु भावना-भेद से आता है अँतर
गीता प्रवचन तीसरा अध्याय
संत विनोबा गीता प्रवचन करते हुए कहते हैं कि कर्म वही, परंतु भावना-भेद से उसमें अंतर पड़ जाता है।
परमार्थी मनुष्य का कर्म आत्मविकासक होता है, तो संसारी मनुष्य का कर्म आत्मबंधक सिद्ध होता है।
जो कर्मयोगी किसान होगा, वह स्वधर्म समझकर खेती करेगा।
इससे उसकी उदरपूर्ति अवश्य होगी, परंतु उदरपूर्ति हो इसलिए वह खेती नहीं करता; बल्कि खेती कर सके, इसलिए भोजन को वह एक साधन मानेगा।
स्वधर्म उसका साध्य और भोजन उसका साधन हुआ।
परंतु दूसरा सामान्य किसान होगा, उसके लिए उदरपूर्ति साध्य और खेतीरूपी स्वधर्म साधन होगा। ऐसी यह एक-दूसरे से उल्टी अवस्था है।
दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ के लक्षण बताते हुए यह बात मजेदार ढंग से कही गयी है। जहाँ दूसरे लोग जागृत रहते हैं, वहाँ कर्मयोगी सोते रहता है।
जहाँ दूसरे लोग निद्रित रहते हैं, वहाँ कर्मयोगी जागृत रहता है।
हम उदर-पूर्ति के लिए जागृत रहेंगे, तो कर्मयोगी इस बातके लिए जागृत रहेगा कि उसका एक क्षण भी बिना कर्म के न जाये।
वह खाता भी है, तो मजबूर होकर। इस पेट के मटके में इसलिए कुछ डालता है कि डालना जरूरी है।
संसारी मनुष्य को भोजन में आनंद आता है, योगी को भोजन में कष्ट होता है। इसलिए वह स्वाद ले-लेकर भोजन नहीं करेगा। संयम से काम लेगा।
एक की जो रात, वही दूसरे का दिन और एक का जो दिन, वही दूसरे की रात। अर्थात् जो एक का आनंद, वही दूसरे का दुःख और जो एक का दुःख, वही दूसरे का आनंद हो जाता है।
संसारी और कर्मयोगी, दोनों के कर्म तो एक-से ही है; परंतु कर्मयोगी की विशेषता यह है कि वह फलासक्ति छोड़कर कर्म में ही रमता है।
संसारी की तरह ही योगी भी खायेगा, पियेगा, सोयेगा। परंतु तत्संम्बंधी उसकी भावना भिन्न होगी।
इसीलिए तो आरंभ में ही स्थितप्रज्ञकी संयममूर्ति खड़ी कर दी गयी है, जब कि गीता के अभी सोलह अध्याय बाकी हैं।
संसारी पुरुष और कर्मयोगी, दोनों के कर्मों का साम्य और वैषम्य तत्काल दिखायी देता है।
फर्ज कीजिए कि कर्मयोगी गो-रक्षाका काम कर रहा है, तो वह किस दृष्टि से करेगा?
उसकी यह भावना रहेगी कि गो-सेवा करने से समाज को भरपूर दूध उपलब्ध हो, गाय के बहाने मनुष्य से निचली पशु-सृष्टिसे प्रेम-संबंध जुड़े।
यह नहीं कि मुझे वेतन मिले। वेतन तो कही गया नहीं हैं, परंतु असली आनंद, सच्चा सुख इस दिव्य भावना में है। *क्रमश*: