आत्मज्ञानी को होता है अखंड दर्शन
आज का वेद चिंतन
संत विनोबा आत्मज्ञानी के बारे में बताते हुए ईशावास्य उपनिषद अंश का छठा मंत्र पढ़ते हैं – *यस्तु सर्वानि भूतानि आत्मण्येवानुपश्यति सर्वभूतेषु चात्मान् ततो न विजुगुप्सते*
प्रथम तीन मंत्रों में संपूर्ण जीवन विचार, आगे के दो मंत्रों में आत्मा का वर्णन और अब तीन मंत्रों में आत्म ज्ञानी पुरुष का वर्णन है।
जैसे गीता में स्थितप्रज्ञ के लक्षण हैं, भागवत में महाभगवदभक्त का वर्णन आता है, वैसे ही यहां आत्मज्ञानी का वर्णन है।
यस्तु – जो ,सर्वानि भूतानि – सब भूतों को, आत्मनि एव – अपने में ही ,अनुपश्यति – सतत देखता है, सर्वभूतेषु – सब भूतों में, आत्मानम् – अपने को देखता है।
जो सब भूतों को अपने में सतत देखता है । और अपने को सब भूतों में सतत देखता है। जैसे हम कोई कपड़ा देखते हैं तो ताने में बाना और बाने में ताना ओतप्रोत देखते हैं।
हम अखंड दर्शन देखते हैं , खंडित दर्शन नहीं कि ताना इधर बाना उधर। मिट्टी का घड़ा देखते हैं तो मिट्टी इधर, घड़ा उधर ऐसा नहीं देखते। मिट्टी और, दोनों का एक साथ दर्शन होता है।
मिट्टी देखी तो घड़ा भूल गए और घड़ा देखा तो मिट्टी भूल गए ,ऐसा नहीं होता । सुवर्ण का अलंकार देखते हैं। तो सुवर्ण भी देखते हैं और आकार भी देखते हैं। दोनों का एकत्र ही दर्शन होता है ।
वैसे आत्मज्ञानी को अखंड दर्शन होता है कि हम और भूत बिल्कुल एक हैं । वह अपने में सबको और सब में अपने को देखता है । अद्भुत दर्शन है।
आत्मज्ञानी अकेला बैठा है तो भी अपने में सारा ब्रह्मांड देखता है। कभी कोई वियोग की अनुभूति नहीं होती उसे ।
उसे महसूस होता है कि सारी दुनिया मुझमें है ।और अगर वह बाजार में घूमता है तो वहां उसे ऐसा नहीं महसूस होगा कि मुझे एकांत नहीं मिल रहा।
हर जगह मैं ही हूं ऐसा उसे लगता है । और उस कारण ततो न विजुगुप्सते – उसको जुगुप्सा नहीं होती। जुगुप्सा यानी अरुचि,कंटाला, ऊब।
एकांत में बैठाओ तो भी अरुचि नहीं और लोगों में घूमाओ तो भी अरुचि नहीं। दोनों बाजू सुरक्षित । इधर भी आनंद, उधर भी आनंद।
तुकाराम कहता है-* *विट्ठल सुखा विट्ठल दुखा। तुक्या मुखा विट्ठल* – तुकाराम सुख में और दुख में विट्ठल का ही नाम लेता है । उसके मुख में दूसरा नाम ही नहीं आता ।
दुनिया में सुख-दुख जैसी कोई चीज ही नहीं । सारा का सारा परमेश्वर का खेल है। जैसे खेल के लिए शक्कर का करेला बनाया।
अब आकार से भास होगा कि वह कडुवा है पर अंदर तो शक्कर ही है। वह कडुवा है ही नहीं।
सुवर्ण का अलंकार टेंढा हो या सीधा, सुवर्णकार के लिए तो सुवर्ण का ही महत्व है। वह तो सुवर्ण को ही पहचानता है।
आकार कोई भी हो तो वह तौलकर सुवर्ण का ही दाम बताएगा। इस तरह जिसे वस्तु दर्शन हो गया उसके लिए दुनिया में सुख दुख नहीं है ।
इसलिए उसे अरुचि भी नहीं – *ततो न विजुगुप्स्यते*। जुगुप्सा यानी अपना संगोपन करने की इच्छा , अपने को अलग रखने की इच्छा ।
गुप् धातु है यहाँ । अपने को किसी से अलग रखने की इच्छा यानी उसके बारे में अरुचि। फलानी वस्तु की संगति या दर्शन मुझे नहीं चाहिए,ऐसी इच्छा।
ज्ञानी पुरुष सतत देखता है – सब भूतों को अपने में और अपने को सब भूतों में ।उसे सब भूत और आत्मा ओतप्रोत हुए दीखते हैं।
अतः उसे कहीं भी नफरत नहीं होती । वैसे तो किसी को शत्रु मित्र नहीं मानता है। परंतु उसको जो शत्रु या मित्र मानते हैं, उनके बारे में भी उसके चित्त् में अरुचि पैदा नहीं होती।
कोई भी कार्य हो , चाहे ऊंचा माना गया या नीचा माना गया, उसे करने में उसे अरुचि नहीं । कोई भी चीज सामने आए- इंद्रियों के अनुकूल हो या प्रतिकूल उस पर कुछ असर नहीं होता।
इस प्रकार *ततो न विजुगुप्सते* यह वाक्य प्राणी मात्र के लिए प्रत्येक कार्य और वस्तु के लिए लागू है।
इसका मतलब है – वह किसी भी प्राणी से *न विजुगुप्सते* । किसी भी कर्म से *न विजुगुप्सते।* किसी भी वस्तु से *न विजुगुप्सते*।
ऐसा मनुष्य सबको समान दृष्टि से देखेगा और उसको अपना कोई अहंकार नहीं रहेगा। उसका उपयोग जैसा करना चाहोगे, करो।
लडाई में ले जाएं तो भी जाएगा और भंगी काम के लिए ले जाएं तो वहां भी जाएगा।
ज्ञानदेव महाराज पानी की उपमा देकर समझाते हैं कि माली पानी को कहता है कि ए पानी आज गन्ने में जाओ तो पानी कहता है ठीक है ।
माली कहता है ए पानी आज सरसों में जाओ तो पानी कहता ठीक है । जहां भी जाएगा उस का रस बढ़ाएगा।
गन्ने में जाएगा तो उसकी मिठास बढ़ाएगा, प्याज की तरफ जाएगा तो उसका तीखापन बढ़ायेगा।
उसी तरह आत्मज्ञानी का अभिमान खत्म हो जाता है और आसपास की सृष्टि के साथ एक रूप से कोई मुश्किल नहीं होती।