राजनीतिक कौवा और तीन अन्य कहानियाँ
राजनीतिक कौवे
दिवाल पर पानी से भरा डिब्बा रखा था पक्षियों के पीने के लिए। कालोनी में पक्षियों की भरमार थी। लोग पीपल के पेड़ के नीचे पक्षियों के लिए दाना डालते थे। आधुनिकरण के चलते कुछ लोग बिस्कुट भी डाल देते थे।
एक कौवा चोंच में बिस्कुट ले कर उड़ा और दीवाल पर पानी के डब्बे के पास आ बैठा। बिस्कुट कड़ा था। उसे नरम करने के लिए उसने चोंच में पकड़ कर पूरा बिस्कुट पानी में डाल दिया। बिस्कुट पूरा गीला हो गया। जैसे ही उसने पानी से चोंच निकाला, अधिकांश बिस्कुट दिवाल पर फैल गया। चोंच में फँसा बिस्कुट निगलने के बाद वह दीवाल पर चोंच मारता रहा, पर कुछ भी उसके हाथ नहीं आया।
दूसरा कौवा भी उसी तरह बिस्कुट लेकर पानी के डिब्बे के पास आया। पर उसने थोड़ा सा ही बिस्कुट पानी में डाला। फिर दिवाल पर रखकर उसने सिर्फ गीला बिस्कुट खाया। इसी तरह बार-बार पानी में थोड़ा-थोड़ा गीला कर आसानी से पूरा बिस्कुट खा गया।
अब तो आप समझ ही गये होंगे कि कौन सा कौवा किस राजनीतिक दल का है।
रेप विक्टिम
आज उसकी ड्यूटी इमरजेन्सी में एक्सरे पर थी। सुबह से ही भीड़ लगी थी। दम मारने की भी फुरसत नहीं थी। अचानक एक पुलिस वाला घुसा। उसके कान में फुसफुसाया,‘एक रेप विक्टिम है, उसका एक्सरे करना है।‘ वो अधेड़ उम्र का था, पर रेप विक्टिम के नाम ने उसको रोमांचित कर दिया। उसने कमरा खाली करा दिया। बाहर लोग शोर मचाते रहे।
उसने कभी रेप विक्टिम नहीं देखा था। उसे फिल्मों में हीरो की बहन का चेहरा याद आया, जिसे गुंडे दौड़ा रहे थे और धीरे-धीरे उसके कपड़े उतार रहे थे। वो सोचने लगा कि बेचारी लड़की के बाल बिखरे होंगे, उसके मांसल शरीर पर कपड़े कहीं- कहीं से फटे होंगे,वो जार-बेजार हो रही होगी। उसके साथ दो-चार लोग होंगे जो उसे इस विपत्ति का सामना करने के लिए ढाढंस बंधा रहे होंगे। ऐसा ही बहुत कुछ, कुछ तो बहुत अश्लील भी,सीमेन सैम्पल और एनल रपचर जैसा वो अपने डायलाग सोचने लगा। कैसे शुरू करेगा बातचीत, घटना का आंखों देखा हाल जानने के लिए।
लड़की कमरे में घुसी। पीछे वही पुलिस वाला था। लड़की दुबली पतली, साधारण, साँवली सी थी पर बाल करीने से सजे थे। चटक लाल लिपिस्टिक और जीन्स एवं स्लीवलेसटी शर्ट मे बेहद लापरवाह लग रही थी। बाहों पर कहीं-कहीं खरोच के निशान थे। संघर्ष करने में उसका हाथ टूट गया था।
वो कहीं से भी बेचारी नहीं लग रही थी। अकेली थी, बेहद शांत एवं सामान्य। उसने अपना बाया हाथ मेज पर रखा। आदमी ने एक्सरे प्लेट लगायी और एक्सरे हो गया। वो चुपचाप खड़ी रही। फिर गीली एक्स रे फिल्म उठायी और कमरे से बाहर हो गयी। न रोना-धोना न कोई बेचारगी। नदी सी शांत, चट्टान सी कठोर। है रेप विक्टिम।
परिवर्तन
आज ममुआँ फिर से मामचन्द हो गया था। सिर ऊँचा, छाती चौड़ी और चेहरे पर चमक। उसका बड़ा बेटा बाम्बे से कमाई कर के लौटा था। पिछली बार मालिक ने 100 रुपये इनाम दिया था दारू पीने के लिए। जब वो जंगल से शानदार सात फुटा सागौन की लकड़ी चुरा कर लाया था। इस बार बेटे ने 500 रुपये दिये। ‘जा बापू, दारू पी’
वो जल्दी-जल्दी शराब की दुकान की ओर भाग रहा था, जैसे यदि वो देर से पहुँचेगा तो सरकार दारू पर पाबंदी लगा देगी। आज वो थैली (देशी शराब का पैकेट) नहीं पियेगा सीधे अद्धा मांगेगा। वो दुकान पर पहुंच गया।
‘अद्धा’
दुकान वाला चौंका, दस रूपये की थैली पीने वाला ममुआ आज अद्धा पियेगा।
‘चल पैसे निकाल’
मामचन्द ने जेब में हाथ डाला।
‘ले पकड़ पाँच सौ का असली नोट’
दुकानदार ने नोट लिया, नोट असली था पर
पचास का था। उसने कहा
“बिना पिये नशा हो गया है। ममुआ तेरा पचास का नोट पाँच सौ का हो गया ? ’
अब चौंकने की बारी मामचन्द की थी। नोट सचमुच पचास का था, पर बेटे ने तो पाँच सौ का नोट दिया था। वो बदहवास हो गया। उल्टे पांव घर की ओर दौड़ पड़ा।
वो घर लौटा, बाम्बे से वापस लौटा बेटा अपने छोटे भाइयों को समझा रहा था। वो हांफते-हांफते बेटे से पूछा।
‘’बबुआ, ये पाँच सौ का नोट पचास का कैसे हो गया।‘’
बेटे ने उसे गौर से देखा। उसने दिया तो पचास का ही नोट था, पर कहा था 500 सौ का नोट। बापू बिना दारू पिये लौटा था। उसने कहा-
‘बापू, दारू पियेगा तो पाँच सौ का नोट पचास का हो जायेगा और भाईयों की किताबें खरीदेगा,उन्हें पढ़ायेगा लिखायेगा तो पचास का नोट पाँच सौ का। समझा?
ममुआँ मथ्था पकड़ कर बैठ गया। सारे बच्चे उसकी तरफ देख रहे थे। उसके मुंह से अनायासनिकला।
‘लईकवाँ कहत त ठीके बा’ (लड़का कह तो ठीक ही रहा है)
उसे धीरे-धीरे नशा चढ़ने लगा। सिर ऊँचा होने लगा। छाती चौड़ी होने लगी। वो फिर मामचन्द में परिवर्तित होने लगा।
सुर्ख लाल कोट
यदि आप हमारी कॉलोनी में आएं तो उसके बाएं कोने में एक पार्क मिलेगा। खूब सजा-संवरा, अभिजातकॉलोनियों की तरह। सुबह-शाम छरहरी काया के तमन्नाई उसमें टहला करतें हैं। दोपहर में भी कभी-कभी कोई प्रेमी युगल वहां आपको बैठा मिल जाएगा। उसके एक कोने में 70 वर्षीय एक बूढ़ा अक्सर बैठा रहताहै, उसने सुर्ख लाल रंग का एक कोट पहना होगा। कोट बहुत पुराना है। उसके बाजू फटे हुए हैं, लगभग सारा कोट घिस गया है। पर रंग फिर भी ताजा है-सुर्ख लाल । घुमंतू बूढ़े अक्सर कहते हैं कि क्या रंगीन तबियत पाई है मियां ने, महिलाओं का कोट पहनते हैं, वो भी चटक लाल। क्यों नहीं लाल रंग, प्रेम का रंग होता है, अनुराग का रंग ।लड़कियां कहती हैं कि बूढ़ा सठिया गया है। अब उसे लाल लंग के कोट पहनने का शौक चढ़ा है।
दरअसल, वह मेरे पापा हैं जो सेवानिवृत्त होने के बाद हमारेसाथ रहते हैं। हमारी पड़ोसिनें पत्नी को लगभग रोज ही सलाह देती हैं कि यदि उनको कोट पहनने का इतना ही शौक है तो नया कोट क्यों नहीं बनवा देते ? हमारे घर का हर आदमी उस कोट के पीछे पड़ा है कि कैसे उस फटे पुराने कोट से उसका पिंड छूटे। पापा उस कोट को सिरहाने रखते हैं-ठीक तकिए के नीचे। कभी-कभी सबसे बात करते-करते ,हंसते-हंसतेअपने कमरे में चले जाते हैं। फिर उस कोट को अपनी जांघों पर रखते हैं। फिर कुछ बुदबुदाते हैं, जैसे उसे मंत्रों से अभिसिंचित कर रहे हों। फिर कोट पहनना शुरू शुरू करते हैं। पहले कोट की बांह में बांह डालना, धीरे-धीरे उसकी एक-एक सिलाई के उभार को महसूस करना, जैसे कभी एक भी फंदा छूट गया तो यही प्रक्रिया फिर से करनी पड़ेगी। फिर इसी तरह दूसरी बांह। कोट उनके पीठ से चिपक जाता है। वह किसी तन्मय योगी की तरह बैठ जाते हैं जैसे कोट पहनना उनकेजीवन का सबसे अहम हिस्सा हो। जब से बच्चों व पत्नी ने भी उनकी कोट पहनने की प्रक्रिया देखी है तो सब लोग उन्हें बैठक से उठने नहीं देते। गोया उन्हें कोई मनोवैज्ञानिक रोग हो। वह अब कोट अखबार में लपेटलेतेहैं और पार्क में चले जाते हैं। फिर वही प्रक्रिया-मंत्र अभिसिंचिन के साथ कोट धीरे-धीरे पहनना।
पत्नी के लाख प्रतिकार के बावजूद मैं उनका कोट बदलने वाला नहीं हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि वह कोट मेरी माँ का है। जब मैं बहुत छोटा था तब उन्होंने वह कोट माँके लिए खरीदा था। उन्हें बड़ा शौक था कि माँ सुर्ख लाल रंग का कोट पहनें पर हम सबकी पढ़ाई और खर्चे में कभी माँ का कोट नहीं आ सका। एक दिन उन्हें फुटपाथ पर यह सेकेंड हैंड कोट दिख गया। उसे वह खरीद लाए और माँ को पहनाया था। माँ के मरने के बाद हमने माँ का सारा सामान हटा दिया था पर पता नहीं कैसे उन्होंने यह कोट बचा लिया था।
माँ उनकी कवच थीं जो सारे दुखों और समस्याओं को उनसे पहले झेलती थीं। कब राशन खत्म हुआ और हफ्तों तक बिना पैसे के घर कैसे चला, माँ उन्हें यह कभी बताना नहीं चाहतीं। कोट अब भी उनके लिए वही कवच था। कोट का एक-एक उभार उन्हें माँ की खुरदरी उंगलियों की तरह लगता रहा होगा। शायद वह अब तो यही हिसाब करते रहते होंगे कि क्या-क्या नहीं दे पाए माँ को और कितना कुछ वह देना चाहते थे। कोट अब भी माँ की तरह, उनका रक्षा कवच था। भरे पूरे- परिवार में भयावह अकेलेपन से उन्हें उबारता था। जैसे कोट में भीगी सुगंध उन्हेंउलाहना देती हो कि क्यों नाराज हो जाते हो बात-बात पर और वह उसे बताते हों कि अब कौन उनकी बात सुनता समझता है। शायद कोट उनके संवाद का माध्यम था। दुख इस बात का है कि पहले महीनों में कभी-कभी वह कोट पहनते थे पर अब लगभग रोज ही उन्हें यह कोट पहनना पड़ता है। फिर भी मुझे संतोष है कि उनके पास कोई कोट तो है, पता नहीं, ऐसा भी सौभाग्य हममें से कितनों को मिले।