पूर्ण से पूर्ण की ओर आत्मविकास का सनातन सूत्र

संत विनोबा का आज का वेद चिंतन विचार

पूर्ण
प्रस्तुति : रमेश भैया

ईशावास्य उपनिषद – शांति मंत्र – पूर्णमद: पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णर्मेवावशिष्यते*।।

संत विनोबा कहते हैं – श्रुति का वचन है- पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्ण से पूर्ण, यह प्राकृतिक विकास का नियम है। इसका अर्थ क्या?

अगर पहले भी पूर्ण और पीछे भी पूर्ण तो विकास किसका? अपूर्ण से पूर्ण कहा जाए तो विकास समझ में भी आता है।

पर पूर्णात् पूर्ण यह भाषा ही अर्थशून्य प्रतीत होती है। अवश्य ही यह भाषा अर्थशून्य प्रतीत होती है, पर इसमें गंभीर अर्थ निहित है।

पूर्ण से पूर्ण यानी छोटे पूर्ण से बड़ा पूर्ण। नवजात शिशु भी पूर्ण है और 20 वर्ष का युवक भी पूर्ण है।

पहला छोटे पूर्ण का उदाहरण है और दूसरा बड़े पूर्ण का।

बालक को एक आंख थी या आधी नाक थी और युवक को दो आंखें या पूरी नाक हो गई, ऐसी बात नहीं।

दोनों को दो आंखें और उन दोनों के बीच एक नाक होती है। दोनों ही पूर्ण हैं। अंतर यही है कि एक छोटा पूर्ण है और दूसरा बड़ा पूर्ण।

दो इंच की सुरेखा भी पूर्ण है चार इंच की सुरेखा भी पूर्ण होती है। पहली छोटी और दूसरी बड़ी। दो इंच व्यास का वर्तुल भी पूर्ण वर्तुल है, और चार इंच व्यास का वर्तुल भी पूर्ण वर्तुल है।

पहला छोटा है दूसरा बड़ा। श्यामपट्ट पर अंकित आंवले के बराबर जो शून्य था, वह खुर्दबीन से कोहडे के बराबर दिखाई देने लगा।

यानी खुर्दबीन ने क्या किया? कैसा विकास किया? क्या उसने अपूर्ण शून्य को पूर्ण शून्य बना दिया ? या छोटे पूर्ण शून्य को बड़ा पूर्ण शून्य बना दिया।

खुर्दबीन ने क्या ऐसा कुछ किया कि जो शून्य आंवले के बराबर था, उसे कोहडे के बराबर शून्य बना दिया?

पूर्ण से पूर्ण यह नैसर्गिक विकास का सूत्र है। सुबह 5:00 बजे सामने का पेड़ मुझे धुंधला दीख रहा है। दिखता तो है पूरा, पर है अस्पष्ट।

5:30 बजे थोड़ा स्पष्ट दीखने लगता है। उस समय भी पहले जैसा ही वह दीखता है ,पर थोड़ा स्पष्ट है ।सूर्योदय के बाद भी पूरा पेंड दिखता है, पर अत्यंत स्पष्ट।

यह नहीं होता कि 5:00 बजे चौथाई पेंड दिखायी पड़े, 5:30 बजे के आधा और सूर्योदय के बाद पूरा।

तीनों दफा वह दिखा तो पूरा ही, पर पहली दफा अस्पष्ट संपूर्ण, दूसरी दफा स्पष्ट संपूर्ण, और तीसरी दफा अतिस्पष्ट् संपूर्ण।

अस्पष्ट, स्पष्ट, और अतिस्पष्ट, यह विकास सूर्य- प्रकाश ने किया। पर तीनों दफा वह विकास संपूर्ण का ही किया।

इस तरह स्पष्ट है कि छोटे पूर्ण से बड़ा पूर्ण, अस्पष्ट पूर्ण से स्पष्ट पूर्ण, यह प्राकृतिक विकास है।

अपूर्ण से पूर्ण का अर्थ क्या है और पूर्ण से पूर्ण का अर्थ क्या है, यह समझने के लिए एक दृष्टांत पर ध्यान दें।

मान लीजिए हम लोग समुद्र के किनारे खड़े हैं। हमें इस समय समुद्र में जहाज वगैरह कुछ भी दिखाई नहीं देता।

थोड़ी देर में एक जहाज दिखने लगता है। यानी जहाज का सिर्फ ऊपरी सिरा दिखने लगता है।

थोड़ी देर बाद निचला भाग दिखने लगता है और फिर पूरा जहाज भी दिखने लगता है।

अब वह संपूर्ण तो दीखता है, पर दूर होने के कारण अस्पष्ट है। इसके बाद जैसे-जैसे पास आने लगा, वैसे- वैसे अधिक स्पष्ट दिखने लगता है।

पहले क्षण में जहाज का जो दर्शन हुआ, तबसे संपूर्ण जहाज देखने तक के दर्शन को हम अपूर्ण से पूर्ण कहेंगे और बाद के दर्शन को पूर्ण से पूर्ण।

पूर्ण से पूर्ण की ओर आत्मविकास का सनातन सूत्र है। किसी भी आत्मवान वस्तु के विकास में यही सूत्र लागू होता है।

आत्मा एक, अविभाज्य, पूर्ण, समान और निर्दोष है और हर एक प्राणी में यह समान रूप से है।

यह भी पूर्ण है, वह भी पूर्ण है, पूर्ण से निष्पन् होता पूर्ण है – आत्मज्ञान पूर्ण है, इसीलिए उसमें से पूर्ण विचार निकलते हैं।

*क्ले मॉडलिंग* मिट्टी की मूर्तियां आदि बनाने की कला संबंधी एक पुस्तक में मूर्ति को अपूर्ण से पूर्ण की ओर ले जाने की पद्धति का स्पष्ट निषेध किया गया है।

उक्त पुस्तक में लेखक ने अपना अनुभव देते हुए लिखा है कि आरंभ में मिट्टी का चाहे जैसा आकार बनाएं, पर अंत में अभीष्ट आकार प्राप्त हो जाए, तो ठीक, इस भावना उसे कभी काम न करें।

बल्कि इस ढंग से निर्माण – कार्य करें कि आदि से लेकर अंत तक किसी भी समय कोई उसे देखे तो वह समझ जाए कि क्या चल रहा है।

ऐसी मूर्ति में कला का संचार होता है। नहीं तो बहुत से कलाकार यह कहते पाए जाते हैं कि अभी क्या देख रहे हैं, पूरा हो, तब देखना।

शुरू में ऊटपटांग बनाते चलें और बाद में उसे सुधारने बैठे। इस तरह की धांधली से कला सध नहीं सकती।

कला है आत्मा का अमर अंश। इसीलिए आत्मविकास के सूत्र पूर्ण से पूर्ण को लेकर ही कला का जन्म संभव है।

यह भी पूर्ण है और वह भी पूर्ण है, और इन पूर्णों का समन्वय करके हमें एक परिपूर्ण बनाना है।

लोग पूछते हैं, आप वेदांत और बौद्धदर्शन का समन्वय करना चाहते हैं, तो क्या वेदांत अपूर्ण है? बौद्ध अपूर्ण है?

हम कहते हैं, न वेदांत अपूर्ण है, न बौद्ध। हिंदुस्तान में जो चार पांच मुख्य विचारधाराएं चली, वे सब पूर्ण हैं।

उन पूर्णों का समन्वय हम चाहते हैं और एक परिपूर्ण दर्शन चाहते हैं।

अपूर्णों को एकत्र करके उनको पूर्ण बनाना हमारा काम नहीं है।

अपूर्णों का समन्वय करके परिणाम पूर्ण आएगा, यह ख्याल ही गलत है।

इसलिए हम कहते हैं- *पूर्णमद: पूर्णमिदम्।।

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