सत्य – दर्शन कब होगा
आज का वेद चिंतन विचार
संत विनोबा कहते हैं कि ईशावास्य उपनिषद ने कहा है कि सुवर्णमय पात्र से सत्य का मुख ढँका हुआ है।
**हिरन्मयेन पात्रेन सत्यस्य अपिहितम् मुखम्। तत् त्वम् पूषन् अपावृणु, सत्य- धर्माय दृष्टये।**
हे परमात्मा, मैं सत्य- दर्शन चाहता हूं, उसी को मैंने अपना धर्म समझा है। तो मुझ सत्यधर्मा के लिए तू वह आवरण खोल दे ताकि मुझे दर्शन हो सके।
वह अत्यंत नम्रता से कह रहा है। सत्य का दर्शन हमें करना है। और सत्य सुवर्ण में पात्र से ढका हुआ है। उस पात्र के अंदर सत्य पड़ा है।
किसी का सुवर्णमय पात्र होता है तो किसी का कुटुंब का पात्र होता है। किसी का राजनीति का पात्र होता है, किसी का पॉलीटिकल पार्टी का पात्र होता है।
किसी का देशाभिमान का पात्र होता है, जिसमें दूसरे देश पर कब्जा करने की भावना रहती है। इन सब बातों के अंदर सत्य ढंका हुआ है।
एक पात्र खोला जाए तो अंदर दूसरा पात्र दिखता है, दूसरा खोलने पर तीसरा दिखता है।
इस तरह अंदर – अंदर खोलते चले जाने पर सत्य का दर्शन होता है।
मेरी मां इस विषय में जो कहती थी, वह मेरे लिए अत्यंत पवित्र उपदेश है, मां जब तरकारी काटती थी तो पत्ता- गोभी काटते समय उसके ऊपर का पत्ता उतारती थी और अंदर का लेती थी।
कभी-कभी ऊपर का पत्ता अच्छा दिखता था, फिर भी वह उसे उतारती थी।
वह कहती थी कि वह पत्ता दिखने में भले ही अच्छा दिखता हो फिर भी उस पर हवा का असर होता है।
इसलिए उसका लोभ नहीं करना चाहिए और अंदर का लेना चाहिए।
जैसे गोभी के अनेक स्तर होते हैं, वैसे चित्त के भी अनेक स्तर होते हैं।
सबसे ऊपर के स्तर में ये सारे मतभेद, पार्टीभेद, आदि होते हैं। उस स्तर को हटाकर अंदर का देखने पर अच्छा दिख पड़ेगा।
संभव है कि अंदर के किसी पत्ते को भी विकल्प का स्पर्श हुआ हो तो उसे भी हटाना होगा।
बिल्कुल ऊपर का छिलका तो हटाना ही है, लेकिन अंदर का विकल्प का,उपासनाओं का जो छिलका है, उसे भी हटाना है।
तब अंदर के भगवान सत्यनारायण का दर्शन होगा। ऐसा रमणीय दर्शन इस मंत्र में है।