एकाग्रता और समग्रता
विनोबा का आज का वेद चिंतन विचार
मैं अक्सर कहता हूं कि चित्त की एकाग्रता कौन बड़ी बात है।
मुझे तो विविधाग्र होने में बड़ी तकलीफ होती है। एकाग्रता तो खेल-सा मालूम होता है।
चित्त एकाग्र तो है ही, प्रतिक्षण एकाग्र ही है। उसे एकाग्र चित्त को बाहर खींचना पड़ता है तब बाबा का ध्यान दूसरी चीज पर जाता है।
इन दिनों बाबा बहरा हुआ है, श्रवण शक्ति क्षीण हुई है। तो और अच्छा हो गया।
वैसे चित्त एकाग्र है ही, इधर-उधर जाता ही नहीं, अपने स्थान में स्थिर है।
लेकिन कभी-कभी अनेकाग्रता की भी उपासना करनी पड़ती है। रसोई बनानी है तो इधर चूल्हा सुलग रहा है।
एक रोटी सेंकी जा रही है, उधर दूसरी रोटी बेली जा रही है, इधर भी ध्यान देना पड़ता है उधर भी ध्यान देना पड़ता है।
इस तरह रसोई बनाने वाले को एक साथ दो- चार चीजों की तरफ ध्यान देना पड़ता है।
क्या एकाग्रता कठिन है? एक डॉक्टर ऑपरेशन कर रहा है तो वह एकाग्र ही है। वह उसमें एकाग्र नहीं होगा तो ऑपरेशन बिगड़ेगा।
उस काम में एकाग्रता की आवश्यकता है, इसलिए वह एकाग्र होता है।
आपके लिए एकाग्रता की आवश्यकता हो और आप ध्यान करें तो ठीक है। लेकिन बडी फजर उसकी क्या आवश्यकता है?
उस समय आप चित्त को एकाग्र करने की कोशिश करते हैं और चित्त बगावत करता है तो ठीक ही करता है।
चित्त की वही शक्ति है जिसकी जो शक्ति है,उसका उपयोग होना चाहिए।
एक बच्चा मीठा लड्डू खा रहा है और उसमें इतना तन्मय है कि किसी भी ध्यानयोगी के ध्यान से ज्यादा ही ध्यानस्थ है।
उसे पता ही नहीं है कि आसपास क्या चल रहा है।
इस तरह मनुष्य को एकाग्रता और अनेकाग्रता, दोनों की जरूरत पड़ती है। मौके पर इसकी जरूरत पड़ती है, तो मौके पर उसकी जरूरत पड़ती है।
इसलिए मनुष्य को व्यूह और समूह, ये दोनों काम करने होते हैं।