मंत्र का भाष्य हर व्यक्ति के लिए पृथक

विनोबा आज का वेद चिंतन विचार

मंत्र
प्रस्तुति : रमेश भैया

संत विनोबा भावे ने कहा कि “ईशावास्य उपनिषद मंत्र ऋषि के काबू में नहीं रहता”, इस दृष्टि से ईशावास्य उपनिषद एक अत्यंत आध्यात्मिक कृति है, उत्तम वांगमयात्मक कृति भी है।

उसमें जो मंत्र है, अर्थघन है, मनन करने से वह खुल सकते हैं। जो मनन मैं करूंगा, वह मेरे लिए सही है।

वह मनन मेरे लिए और मेरे सदृश लोगों के लिए यानी जो मेरी भूमिका में हैं, उनके लिए लाभदायी है।

लेकिन औरों के लिए हानिकारक नहीं है। उनके लिए इससे भिन्न अर्थ भी हो सकते हैं।

आध्यात्मिक मंत्रों के अर्थ, उनके दृष्टा जो ऋषि होते हैं, उनके काबू में नहीं रहते। यह विशेष बात है।

जैसे किसी धनुर्धारी ने धनुष तानकर बाण छोड़ा, फिर वह उनके हाथ में नहीं रहता। उसने जिस दिशा में बाण छोड़ा है, उस दिशा में जाएगा।

लेकिन वह उस बाण का फिर से संवरण नहीं कर सकता। तो मैं कहना यह चाहता हूं कि जिस दृष्टा ऋषि ने मंत्र कहा, उस मंत्र का अर्थ उस ऋषि के काबू में नहीं रहता है।

“परिपूर्ण दर्शन का दावा गलत” पतंजलि का एक सूत्र है। उस सूत्र का उसके मन पर कुछ अर्थ होगा, उसने उस पर भाषण किया।

उस पर हमने भी भाष्य किया है। वह अध्यात्मिक है। इसलिए पतंजलि के भाष्य से हमारा भाष्य भिन्न हो सकता है।

उसने खुद जो भाष्य किया, तद भिन्न भाष्य दूसरे लोग कर सकते हैं। इसलिए कि मंत्रों के लेखक नहीं होते, वे दृष्टा होते हैं।

और दर्शन हमेशा एकांगी होता है।

हम एक बिंदु पर खड़े हैं, वहां से हमें एक दर्शन होता है। वह दूसरे बिंदु पर खड़ा है, इसलिए उसे दूसरा दर्शन होता है।

हर मनुष्य को अपनी-अपनी दिशा होती है। अगर हर मनुष्य अपने दर्शन को परिपूर्ण मानेगा, तो गफलत में रहेगा।

समझना चाहिए कि जिस प्रकार का दर्शन मुझे हुआ है, उससे भिन्न दर्शन दूसरे को हो सकता है।

यह न्याय वस्तुदर्शन को भी लागू होता है और मंत्र को भी लागू होता है।

मुझे एक मंत्र का दर्शन हुआ, मैंने वह सही माना। दूसरे को उसी मंत्र का दूसरा अर्थ सूझ सकता है। वह भी सही है।

मुझे भी आज एक अर्थ सूझ सकता है, तो कल उसी मंत्र का दूसरा अर्थ सूझ सकता है।

लेकिन मेरे किसी एक अर्थ को दूसरा अर्थ काटेगा नहीं, बल्कि वह पूरक होगा।

यह चीज ध्यान में नहीं आती है इसलिए भाष्यकार एक-दूसरे को काटने के लिए प्रवृत्त होते हैं।

मुझे यह अर्थ सूझा है इतना कहने से उन्हें संतोष नहीं होता। दूसरे को जो अर्थ सूझा है, उसे काटने की उन्हें इच्छा होती है।

लेकिन उसकी कोई आवश्यकता नहीं है मुझे जो अच्छा नहीं है। मुझे जो अर्थ सूझा, वह भ्रांत नहीं है, सही है, वह मेरे लिए पर्याप्त है।

इसी तरह दूसरे को जो अर्थ सूझा वह भी सही है और वह उसके लिए पर्याप्त है। इस दृष्टि से हम देखते हैं तो एक अद्भुत दर्शन होता है।

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