ईशावास्य उपनिषद में समग्र जीवन का दर्शन
विनोबा का आज का वेद चिंतन : ईशावास्य उपनिषद प्रास्ताविक
संत विनोबा भावे कहते हैं कि – रोज सुबह प्रार्थना में ईशावास्य बोलते हैं। वह सबसे छोटा और सबसे श्रेष्ठ उपनिषद है।
बचपन से मेरी उस पर प्रीति बैठी है। उसका मेरे जीवन पर और चित्त् पर बहुत ही प्रभाव पड़ा है। उसमें समग्र जीवन का दर्शन पेश किया गया है।
हमें जितना परिपूर्ण विचार ईशावास्य के चंद श्लोकों में मिला, उतना दुनियाभर के साहित्य में और कहीं नहीं मिला।
गीता भी एक छोटा सा ग्रंथ है। लेकिन ईशावास्य में सिर्फ अठारह श्लोक हैं। पतंजलि के योग सूत्र 195 हैं। वे छोटे अवश्य हैं, पर ईशावास्य की बराबरी नहीं कर सकते।
जीवन के लिए क्या-क्या चाहिए, इसका पूरा नक्शा ही ईशावास्य के 18 श्लोक में बताया है। उसमें वेदांत का कुल सार आ जाता है।
साधक की समग्र साधना उसमें थोड़े में आ गई है। इसलिए प्रातःस्मरण के लिए वह बहुत उपयोगी है।
इस उपनिषद पर संस्कृत में भाष्य हुए हैं उतने दूसरे किसी उपनिषद पर नहीं हुए।
विचारकों का जितना ध्यान इस ग्रंथ ने आकर्षित किया है ना शायद भगवदगीता और पतंजलि के योगसूत्र छोड़कर भारत की किसी और पुस्तक में आकर्षित नहीं किया होगा।
इसका आकार छोटा है, इसलिए इसमें जितना अर्थ संग्रहित कर सकते हैं, उतना करने की कोशिश मंत्रदृष्टा ऋषि ने की है।
मंत्र और मंत्रजाल
इसमें 18 मंत्र हैं, जहां गीता में 18 अध्याय हैं। मंत्र शब्द अपने मूल अर्थ में इस उपनिषद को पूर्णतया लागू होता है।
मंत्र तो वह होता है, जिसके अर्थ के प्रकाशन के लिए हमको कुछ मनन करना पड़ता है और कुछ प्रयोग भी करने पड़ते हों।
मनन और प्रयोग से जिसके अर्थ पर प्रकाश पड़ता है , और जिसका अर्थ उतरोत्तर विकसित हो सकता है , होने वाला है- वह मंत्र कहलाता है।
इन दिनों समाज में मंत्र शब्द नीचे गिर गया है।
जिस तरह अनेक प्रतिष्ठित शब्दों के अर्थ हमारे नि:सार जीवन के कारण हमने नीचे गिराए हैं, वैसे ही मंत्र शब्द का अर्थ भी हमने नीचे गिराया है।
भूत- प्रेत के भी मंत्र होते हैं। सर्प के विष का हरण करने वाले मंत्रों का भी उच्चारण होता है।वशीकरण- मंत्र आदि भी होते हैं ।
ये सारे मंत्र शब्द के योग्य नहीं है। उस प्रकार के जो मंत्र समाज में रूढ़ हैं उनको तांत्रिक जप कह सकते हैं।
मंत्र शब्द का जो प्रयोग उनके लिए किया जाता है, वह उस शब्द की गिरावट है।
भूत-प्रेत-सांप आदि के मंत्रों का जप करनेवालों को उनके अर्थ पर कोई चिंतन-मनन नहीं करना पड़ता। उनसे वैसी अपेक्षा नहीं की जाती।
केवल यही अपेक्षा की जाती है कि श्रद्धा -भक्ति पूर्वक उन अक्षरों का वे उच्चारण करें और साथ – साथ कुछ आचार – बताए जाते हैं, उनका पालन करें।
उनमें से कई मंत्र ऐसे हैं जिनका कोई खास अर्थ नहीं होता है। वे सिर्फ बोलने के होते हैं।
तुलसी रामायण में तुलसीदास जी ने लिखा है- शाबर- मंत्रजाल जिनि सिरिजा। उसमें मंत्रजाल शब्द लगा दिया है और सूचित किया है कि वह अर्थहीन जंजाल है।
मेरे इस कथन का यह अर्थ नहीं है इन तांत्रिक जपों के परिणामस्वरूप कुछ भी फल न मिलता हो। फल तो मिलते होंगे।
ऐसा मान सकते हैं कि वे फल श्रद्धामूलक और कल्पनामूलक होते हैं और उनका कुछ प्रत्यक्ष जीवन में दिख पड़ सकता है।