राजेंद्र माथुर को भूल नहीं सकता
आज अचानक राजेंद्र माथुर याद आ गये। कुछ क़रीबी उन्हें रज्जू बाबू कहते थे ।
मैं उन्हें ‘नई दुनिया ‘से जानता था जहां वे सबके बीच बैठा करते थे।
जब वे नवभारत टाइम्स ‘का प्रधान संपादक बने तो मैंने उनसे पूछा था कि यहां कमरे में अलग बैठकर आपको अटपटा नहीं लगता।
तो हंस कर बोले ‘इंदौर और दिल्ली में जैसे अंतर है वैसे दोनों संस्थानों की कार्यप्रणाली में भी है।
दिल्ली आकर मैंने अपने–आपको उसके अनुकूल ढाल लिया है।
अपनी निजता बनाये रखने के लिए मैं अपने कमरे का दरवाज़ा अपनी कुर्सी पर बैठे बैठे बंद कर सकता हूँ।
इसका लाभ यह है कि कोई आकर यह नहीं कहेगा कि मैं आपके दर्शन करने आया था।
दूसरे मैं सम्पादकीय बिना किसी बाधा या विघ्नों के लिख पाऊंगा।
कभी कोई बड़ा आलेख लिखने का मन किया तब भी शांति और सुकून का माहौल रहेगा ।’
दिल्ली आने पर राजेन्द्र माथुर से अक्सर मुलाकात हो जाया करती थी।
बैठते तो ‘दिनमान” के लोग 10, दरियागंज वाली पुरानी बिल्डिंग में थे लेकिन नयी बिल्डिंग में भी उनका आना-जाना लगा रहता था।
फ़ील्ड में होने के नाते मैं अक्सर वहां जाया करता था।
आखिर छह सात बरस वहां गुजारे थे। अगर माथुर साहब होते तो उनसे मिलने की मन में हसरत बराबर रहती थी।
एक दिन बोले,’ दीप जी आप यह बताओ कि भिन्न-भिन्न विषयों पर आप लिख कैसे लेते हैं ।
मैं शुरू से ‘दिनमान”का पाठक रहा हूं ।वात्स्यायन जी के समय तो पता लगा पाना मुश्किल होता था कि कौन क्या लिखता है।
रघुवीर सहाय के आने के बाद जब आप लोगों की बाइलाइन जाने लगी है तो सभी लेखकों की जानकारी रहने लगी है।
मुझे यह देख कर कभी-कभी हैरत होती है कि आधा तो कभी आधे से अधिक दिनमान में आपका योगदान रहता है। बाकी लोग क्या करते हैं’ ?
विविध विषयों पर लिखने का श्रेय वात्स्यायन जी को
राजेन्द्र माथुर उर्फ रज्जू बाबू को इसका राज़ बताते हुए मैंने कहा कि मेरे विविथ विषयों पर लिखने का श्रेय वात्स्यायन जी को जाता है।
वे कहा करते थे कि दुनिया में कोई भी indispensable यानी अपरिहार्य नहीं है।
उन्होँने दिनमान के ही कुछ उदाहरण दिये थे ।
यह बात सिर्फ मुझ से ही नहीं कही गयी थी बल्कि सभी सहयोगियों से कही थी।
वे यह भी कहा करते थे कि हरेक की अपनी छोटी मोटी लाइब्रेरी होनी चाहिए।
अगर न हो तो अपनी रपट तैयार करने से पहले किसी लाइब्रेरी में जाना चाहिए।
उस समय के हालात आज की तरह खुशगवार नहीं थे।
अगर आज मुझ में लिखने की कुव्वत है तो इसमें पूरा का पूरा योगदान वात्स्यायन जी का है।
वात्स्यायन जी और रघुवीर सहाय की तरह राजेन्द्र माथुर का भी हिंदी और अंग्रेजी पर समान अधिकार था।
इस का राज़ जब मैंने रज्जू बाबू से जानना चाहा तो इस बात को उन्होंने हंस कर टाल दिया ।
ज़्यादा कचोटने पर बोले, कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन और बाद में भी लगातार पढ़ने की आदत।
अंग्रेज़ी में मैंने बहुत लिखा है और मेरे कुछ मित्रों ने भी मुझे अंग्रेज़ी में ही लिखने की सलाह दी थी।
लेकिन हमारे मालवा का खून इसे स्वीकार करने को राज़ी नहीं हुआ और मैंने हिंदी पत्रकारिता का दामन थाम लिया।
इसका कोई अफसोस भी नहीं। कोई कहता है तो ,वक़्त होने परअंग्रेज़ी में लिख देता हूं।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया के लिए कई बार लिखा है ।
नयी पीढ़ी के बारे में राय
हम लोगों में अक्सर बेबाकी से बातें हुआ करती थीं।
एक बार मैंने राजेन्द्र माथुर से पूछा कि ‘नई दुनिया’ और अब ‘नवभारत टाइम्स’ में भी काफी समय हो गया है।
इन नये लोगों के बारे में आपकी क्या राय है।
उन्हें अधिक सोचने की ज़रूरत नहीं पड़ी।
बोले,’ दिनमान’ जैसी पौध तो अब रही नहीं और आप जैसे हरफनमौला और ख़तरों के खिलाड़ी भी कहीं इक्का-दुक्का होंगे।
लेकिन यह कह सकते हैं कि कैसी आरामतलब होती जा रही है वर्तमान पीढ़ी?
पहले के मुकाबले सुविधाएँ बढ़ गयी हैं जिसके कारण मेहनत करने का माद्दा भी लोगों में नहीं रहा और न ही जुझारूपन।
आज की पीढ़ी में पढ़ने की आदत भी कम है और लाइब्रेरी में जाने की तो बिल्कुल नहीं।
मुझे लगता है कि आज कम ही लोगों में अपनी तय बीट के अलावा कुछ और करने की इच्छा होती है।
एक बीमारी शॉर्टकट की भी बढ़ती जा रही है। इसे कामचोरी भी कहा जा सकता है।
कुछ सीखने की ललक नहीं रही, अलबत्ता जॉब बदलने की होड़ बढ़ती जा रही है।
यह पूछे जाने पर कि आजकल नौकरी में असुरक्षा की भावना भी तो अधिक है, इसीलिए लोग जल्दी जल्दी जॉब बदलते हैं।
रज्जू बाबू का तर्क था कि आज की पीढ़ी की मानसिकता, रातोंरात अमीर बनने की ख्वाहिश है।
पंजाब के आतंकवाद पर चर्चा
इस बातचीत का कहीं कोई अंत होता न देख मैंने अनुमति लेते हुए कि सुबह मुझे अमृतसर के लिए निकलना है।
इस पर राजेन्द्र माथुर ने कहा कि लौटने पर मिलियेगा ज़रूर वहां के आतंकवाद पर चर्चा करनी है।
अमृतसर से लौटने के बाद वादे के मुताबिक मैं राजेन्द्र माथुर से मिलने के लिए पहुंच गया।
मेरे उनके कक्ष में प्रवेश करते ही उन्होँने ताले वाली घंटी बजा दी।
अब हम आराम से बातचीत करने लगे।
उन्हें मैंने ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद बचे खाडकुओं यानी आतंकवादियों से हुई मुलाकातों के बारे में बताया ।
उन्हें यह जानकारी भी दी कि अब अनगढ़ जवान और बच्चे हैं जिन्हें यह सिखाया गया है कि कोई उनसे पूछे कि तुम्हारी क्या माँग है तो कहना कि परिंदों को भी तो आलनाह यानी घोंसला चाहिए, हमें भी अपना अलग आशियाना यानी खालिस्तान चाहिए।
इसके आगे कोई सवाल पूछता तो वे बगलें झांकने लगते।
अकाली दल के संस्थापक नेताओं में से एक मास्टर तारा सिंह थे।
उनकी बेटी राजिंदर कौर बहुत सक्रिय हुआ करती थीं।
जितनी बार मैं उनसे मिला उनका यही कहना होता था कि अड़ियल रुख से काम नहीं चलता मैं तो अकाली नेताओं को सदा बातचीत का रास्ता अपनाने की सलाह देती हूं।
अपनी इसी सोच का खामियाज़ा भुगतते हुए वे भी आतंकवाद का शिकार हो गयीं।
माथुर साहब को मैंने मेहता चौक के बारे मे भी बताया जो कभी संत जरनैल सिंह भिंडरांवाले का मुख्यालय होता था।
यह भी साफ कर दिया कि यह काम शम्मी सरीन के सहयोग से ही हो पाया करता था।
आपको डर नहीं लगता
वे बड़े मनोयोग से मेरी बातें सुना करते थे। उनसे रहा नहीं गया।
इतने भीतर तक जाकर आप स्टोरी लाते हैं आपको डर नहीं लगता।
मैंने कहा,बिल्कुल नहीं। वात्स्यायन जी और उनके क्रांतिकारी दौर की तस्वीर आंखों के सामने आ जाती है।
रज्जू बाबू ने आगे कहा कि जहां तक मुझे याद है 1984 में तीन मूर्ति भवन में इंदिरा गांधी के शव के पास आप खड़े थे।
उस समय तक वहां भीड़ जमा नहीं हुई थी।
भीड़ के जमा होने के बाद सिखों के खिलाफ जब नारेबाज़ी हुई तो आप ऑफ़िस में अपनी रिपोर्ट फ़ाइल कर रहे थे।
आपने तो लंदन के पास तथाकथित खालिस्तान के नेता जगजीत सिंह चौहान का इंटरव्यू भी किया था बिना यह सोचे समझे कि देश लौटने पर आपको पकड़ा भी जा सकता था।
अब मुझ से न रहा गया, ‘देखो रज्जू बाबू, आप भी 1935 जन्मा हैं और मैं भी,आप भी अगस्त की पैदाइश हैं और मेरी भी उसी महीने की है, हां आप मुझ से चार दिन पहले पैदा हो गए थे।
ब 1935 की राजनीतिक गतिविधियों का असर तो हम पर पड़ेगा ही जो हमें घुट्टी में मिला है।
हमारा मौजूदा काम भला इस असर से कैसे मुक्त रह पायेगा।
फिर हंसते हुए वे बोले, ”इन्हीं कारणों से मैंने प्रबंधन से तुम्हारी मांग की थी जो नामंज़ूर कर दी गयी थी।
स्थायी संवाददाताओं की नियुक्ति पर चर्चा
अब एक मतलब की बात बताओ। क्या राज्यों में दिनमान के स्थायी सम्वाददाता हैं?“
मैंने उन्हें बताया था कि एक प्रांत से कई रपटें आती हैं तो हमें अच्छी लगती है, उसे अच्छी तरह से जांचने-परखने और उन्हें अपडेट करके छापते है।
उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब आदि से कई लोग रपटें भेजा करते थे।
जैसे राजस्थान से ओम सैनी, ईश मधु तलवार, महेश झालानी, ओम गौड़ आदि।
इसी प्रकार रमेश गौतम, राधे श्याम शर्मा, शम्मी सरीन आदि पंजाब से रपटें भेजा करते थे।
मैंने उनके ऐसा पूछने की वजह पूछी तो उन्होने बताया था कि कुछ राज्यों में ‘नवभारत टाइम्स’ के लोग नहीं हैं तो ‘दिनमान’ में लिखने वाले लोगों को हम टटोल सकते हैं।
बाद में पता चला कि महेश झालानी को राजस्थान और शम्मी सरीन को अमृतसर के लिए रख लिया गया है।
उनकी नियुक्ति में मेरी किसी तरह की कोई भूमिका नहीं थी।
अगर किसी का कोई रोल था तो उन लोगों के काम का जिसका आकलन राजेन्द्र माथुर ने दिनमान में छपी उनकी रपटों से स्वयं किया होगा।
संडे मेल जाने पर दी शुभकामना
जब ‘दिनमान’ छोड़ मैंने ‘ संडे मेल ‘जाने का फैसला किया तब भी मेरी राजेन्द्र माथुर से लंबी बातचीत हुई थी।
उस बाबत चर्चा न करना ही बेहतर है ।
उन्होंने मुझे ज़रूर यह शुभकामनाएं दी थीं कि तुम्हारे रहते पेपर तरक्की करेगा।
न केवल वात्स्यायन जी का तम्हें आशीर्वाद प्राप्त है बल्कि उनकी ट्रेनिंग तुम्हारा मार्ग सुगम बनायेगी।
और जब चाहो मुझ से मिलने के लिए आ सकते हो।
1990 में ‘संडे मेल’ के प्रकाशन के उपलक्ष्य में आयोजित एक समारोह में पधार कर राजेन्द्र माथुर ने हमारा मान रखा था।
उस समय हिंदी के प्रबुद्ध संपादकों मे उनकी गिनती की जाती थी।
वहां भी उन्होंने मुझ से पूछा, ‘सब ठीक-ठाक है न।’
जब हम दोनों अलग से बात करना चाहते तो कोई न कोई बीच में आ जाता।
कभी वे वसंत साठे से घिर जाते तो कभी नन्दन जी उन्हें आकर गले लगा लेते या उनका कोई और प्रशंसक आ जाता।
फिर भी हम लोगों की कुछ महत्वपूर्ण बातचीत हो ही गयी।
कुदरत की विडंबना देखिए। 9 अप्रैल, 1991 में महज 55 साल की उम्र में सहसा राजेन्द्र माथुर हमें छोड़ गये। वात्स्यायनजी के जाने के ठीक चार बरस और पांच दिन के बाद। वात्स्यायन जी का 4 अप्रैल, 1987 को निधन हुआ था।
राजेन्द्र माथुर के साथ की इन मधुर यादों के सिर्फ और सिर्फ हम दोनों गवाह थे।
उन्हीं न भूलने वाली यादों को सादर नमन।