देश में विचार शून्यता की स्थिति
डॉ. पुष्पेंद्र दूबे। आज देश में विचार शून्यता उपस्थित हुई है और इससे अभिक्रमशीलता भी चली गयी है।
देश मे आशावाद का ऐसा घटाटोप छाया हुआ है कि वास्तविकताएं नजर आना बंद हो गयी हैं।
यदि गाहे-बगाहे उनकी ओर ध्यान दिलाया भी जा रहा है तो वह नक्कारखाने में तूती के समान है।
जब संचार के क्षेत्र में इतने अधिक साधन नहीं थे, तब सूचनाओं के यथार्थ को आसानी से छिपाया जा सकता था।
आज तो ऐसी स्थिति नही है। अब तो दिन-रात अनेक प्रकार की सूचनाओं का अनवरत प्रवाह बह रहा है।
उसमें देश और दुनिया बही चली जा रही है। अहो रूपम अहो ध्वनि का स्वर चहुँ ओर गुंजायमान है।
अनेक प्रकार के संकट दिखायी देने के बाद भी शुतुर्मुर्ग जैसे गर्दन रेत में धंसा लेने की प्रवृत्ति का भी खुले आम प्रदर्शन हो रहा है।
इसका बहुत बडा कारण यह है कि देश में तटस्थ रूप से विचार करने वाला समूह आज के वक्त में गायब है।
यह कहना सही नहीं होगा कि उसे गायब कर दिया गया है।
रचनात्मक कार्य और राजनीति की सूक्ष्म लक्ष्मण रेखा मिटाने से ऐसी स्थिति निर्मित हुई है।
आज देश की जनता को यदि नहीं सूझ रहा है कि वह क्या करे कहाँ जाए ?
तो इस प्रश्न के मूल में देश में रचनात्मक काम और संस्थाएं क्षीण अथवा समाप्त होना है।
अब रचनात्मक कार्यो के लिये न तो एकादश व्रतों में से किसी व्रत का पालन करने की जरूरत है और न ही राजनीति निरपेक्ष रहकर काम करने की।
रचनात्मक कार्य को सर्वाधिक क्षति कार्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी ने भी पहुंचाई है।
इसमें कंपनियों ने जिस प्रकार से समाज सेवा का ‘व्यवसायिकरण’ किया है उसने समाज में स्थापित सेवा के मूल्यों को धराशायी कर दिया है।
आज राजनीति को इतना अवसर तभी मिल पाया है जब रचनात्मक कार्यक्रम हाशिये पर चले गये।
वास्तव में आज हम राजनीति की बनी बनायी चौखट से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।
राजनीति के न होने की कल्पना नहीं
इससे बाहर आने का विचार करने पर समाज का बुद्धिजीवी वर्ग सिहर उठता है।
वह राजनीति के न होने की कल्पना ही नहीं कर सकता।
जिससे वह मुक्त होने के लिए छटपटा रहा है, उसका दिन-रात चिंतन कर रहा है।
उससे अलग होकर विचार करने की सामर्थ्य ही नहीं बची है।
विश्लेषण और विरोध अथवा समर्थन को देख-सुनकर वह थोडी देर के लिए खुश या नाराज तो हो जाता है, परंतु वह किसी लक्ष्य पर पहुंचने में हिचकिचाता है।
आज भी उसकी आंखें राजनीति और धर्म के क्षेत्र में किसी ऐसे चमत्कारी पुरुष स्त्री की तलाश में हैं जो उसके दुख-दर्दों को पल भर में मिटा दे।
जबकि विज्ञान युग में राजनीति और धर्म दोनों ही आउट ऑफ डेट हो गये हैं।
इसलिये कोई एक उद्धारक कष्टों से छुटकारा दिलाएगा, यह दिवा स्वप्न है।
अब राजनीति और धर्म के विरोध या समर्थन से कोई क्रांति हो सकेगी यह संभव नहीं दिखता है।
क्रांति तो तब होगी जब सर्वसम्मति के आध्यात्मिक तत्व को लोकमानस स्वीकार करे।
भेदासुर और संख्यासुर से समाज विखंडित हो चुका है।
सर्वसम्मति को अपनाकर इससे भिन्न व्यवस्था की दिशा मे विचार कर उसे व्यावहारिक रूप दिया जाएगा।
आज सर्वसम्मति के कौन से विषय हो सकते हैं, उसे आपस में चर्चा करने के बाद निर्धारित किया जा सकता है।
यह चिंतन राजनीति निरपेक्ष होगा, तो लक्ष्य प्राप्ति मे आसानी हो सकती है।
आज अभिक्रमशीलता को पुनः हासिल करने की जरूरत है।