अर्थव्यवस्था की वर्तमान दशा से उपजे सवाल
भारतीय अर्थव्यवस्था विभिन्न विरोधाभासी नीतियों और उनके मिश्रित प्रभावों से जूझ रही है और स्वाभाविक रूप से इस से सर्वाधिक प्रभावित होने वाली आम जनता है जो अपने सीमित संसाधनों से गुजारा करती हुई एक ऐसे देश और अर्थव्यवस्था की अपेक्षा करती है जो उनकी जीवन दशाओं को बेहतर बनाएगी।
पिछले दो दशकों में अर्थव्यवस्था में सकल घरेलू उत्पादन में वृद्धि दर के 10% के लक्ष्य को बेहतर निष्पादन मानते हुए इस लक्ष्य के आसपास होने अथवा न होने के विषय से जोड़ कर अर्थव्यवस्था के विश्लेषण होते रहे, और फिर अधिकांशतः अपवाद स्वरूप कुछ वर्षों के अतिरिक्त विकास दर इस लक्ष्य से कम ही रही।
इसके बावजूद भी, अचानक ही अर्थव्यवस्था का एक नया लक्ष्य “5 ट्रिलियन डॉलर इकोनामी” के रूप में अवतरित हुआ, और इसे प्राप्त करने के लिए भारी निवेश, बहुराष्ट्रीय निवेश आदि को बढ़ावा देने वाली नीतियों पर बल दिया जाता रहा।
बुनियादी जरूरतों और अधिसंरचनात्मक ढांचे को मजबूत करने की उपेक्षा
आर्थिक विकास की कुछ अनिवार्य आवश्यकताएं होती हैं, और भारत जैसे देश के विशेष संदर्भ में जो नितांत आवश्यक हैं जैसे कि, शिक्षा स्वास्थ्य एवं अधिसंरचनात्मक सुविधाओं का मजबूत ढांचा, रोजगार के अवसरों का सृजन, अनुत्पादक व्यय पर नियंत्रण और उत्पादकता में वृद्धि इत्यादि।
लेकिन इन सब की दिशा में नीतियों के कोई सकारात्मक प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं हुए और केवल निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने वाली योजनाओं का विस्तार हुआ और आधुनिक तकनीकी पर आधारित बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश के द्वारा उत्पादन बढ़ाकर सकल घरेलू उत्पाद के लक्ष्यों को प्राप्त करने पर जोर दिया जाता रहा।
लेकिन इससे घरेलू अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव हुए।
अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने के लिए स्वदेशी संसाधनों के उपयोग, लघु और मध्यम उद्योगों के विकास, स्वदेशी टेक्नोलॉजी पर शोध विकास और विस्तार के द्वारा स्वदेशी संसाधनों और श्रमिकों के उपयोग के द्वारा लागत में कमी के उद्देश्य इत्यादि पर भी दुष्प्रभाव हुए।
सुधारों के सकारात्मक प्रभाव नहीं हुए
अर्थव्यवस्था में सुधार के उद्देश्यों से जो मौद्रिक सुधार किए गए यथा भारतीय मुद्रा का विमुद्रीकरण एवं जीएसटी, इनके कोई सकारात्मक प्रभाव अर्थव्यवस्था में उत्पन्न नहीं हुए, बल्कि इनसे उत्पादन और रोजगार की गतिविधियों पर अत्यधिक नकारात्मक प्रभाव हुए।
अत: इन नीतियों को अव्यावहारिक और अदूरदर्शी माना जाना चाहिए, क्योंकि इन से कोई सकारात्मक लाभ प्राप्त नहीं हुए जैसे कि निर्धारित किए गए थे।
क्योंकि, वर्तमान में केंद्र जीएसटी द्वारा प्राप्त राजस्व में से राज्यों को उनका हिस्सा देने तक में समर्थ नहीं है, तब इसका राज्य सरकारों के राजस्व पर और विकास पर विपरीत प्रभाव होना स्वाभाविक है।
इन स्थितियों मेव अत्यंत अविवेक पूर्ण , अव्यावहारिक और अदूरदर्शी प्रतीत होता है “5 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी” जैसे लक्ष्य निर्धारित किया जाना।
एक ऐसी अर्थव्यवस्था में जहां 60 करोड़ जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे गुजर कर रही हो, शिक्षा स्वास्थ्य और रोजगार से वंचित हो, औसत गुणवत्ता पूर्ण जीवन से वंचित हो।
देश के विकास की दिशा क्या होगी ….?
इन स्थितियों में जब देश वैश्विक महामारी और अर्थव्यवस्था पर और देशवासियों पर अत्यंत विपरीत प्रभाव वाली अवस्था में है, तब अर्थव्यवस्था के विकास की सुनहरी तस्वीर दिखाया जाना छलावा है।
इन परिस्थितियों में 24% की ऋण आत्मक विकास दर की स्थिति के साथ स्वास्थ्य सुविधाओं को आम आदमी के लिए उपलब्ध किए बिना, लघु और कुटीर उद्योगों को मजबूत किए बिना, रोजगार बढ़ाए बिना, अनुत्पादक व्यय और फिजूलखर्ची में कमी किए बिना, अर्थात अधिसंख्य जनसंख्या के लिए रोजगार और आय के अवसर बढ़ाए बिना अर्थव्यवस्था के किसी सुनहरे भविष्य की कल्पना और दावे किया जाना केवल कल्पना और छलावा हैl
लेखक अर्थशास्त्री और विचारक हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था पर अनेकों किताबों और शोध और शोधपत्रों द्वारा विगत चार दशकों से विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं।