स तीर्थराजो जयति प्रयागः –तीन
गतांक से आगे
डा चंद्र्विजय चतुर्वेदी
सितासिते यत्र तरंग चामरेंनद्यो विभाते मुनि भानु कन्यके
नीलात्पत्रम वट एव साक्षात स ती र्थराजो जयति प्रयागः
अर्थात ,श्री गंगा और यमुना जी के नीले और सफ़ेद रंग की जिनके चंवर है तथा अक्षयवट ही जिनके नीले रंग का छत्र है ऐसे तीर्थराज प्रयाग की जय हो |गंगा -यमुना के संगम पर सरस्वती अन्तःसलिला होकर मिलती है ,ऐसा विश्वास प्रयाग को पवित्र त्रिवेणी के रूप में प्रतिष्ठित करता है –यत्र गंगा च यमुना च तत्र सरस्वती |यद्यपि वेद , रामायण ,महाभारत या कालिदास की रचनाओं से इस तथ्य की पुष्टि नहीं होती की प्रयाग में गंगा -यमुना के साथ ही सरस्वती नामक किसी नदी का संगम होता है तथापि तुलसी बाबा मानस के बालकाण्ड में प्रयागराज की महिमा का वर्णन करते हुए सरस्वती की धारणा की पुष्टि करते हैं –
मुद मंगलमय संत समाजू ,जो जग जंगम तीरथराजू
रामभक्ति जहँ सुरसरि धारा सरसई ब्रह्म बिचार प्रचारा |
बिधि निषेधमय कलिमल हरनी करम कथा रबिनंदनि बरनि
हरिहर कथा बिराजति बेनी सुनत सकल मुद मंगल देनी |
तीर्थराज प्रयाग का संत समाज आनंद मंगल से परिपूर्ण है |रामभक्ति ही गंगा की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार ही सरस्वती की धारा है |विधि तथा निषेधरूपी जो कर्मकांड की कथा है,कलिकाल के पापों को हरनेवाली ,वही सूर्यपुत्री यमुना जी हैं| भगवान विष्णु और शिव जी की कथा ही त्रिवेणी रूप से सुशोभित है जो मंगल प्रदान करने वाली है |
तीर्थराज प्रयाग में गंगा -यमुना का संगम प्रकृति का अदभुत संयोग है |वाल्मीकि रामायण में वर्णित है कि प्रयाग संगम के समीप पहुँचने पर राम कह उठे –
नूनं प्राप्ताः स्मसम्भेदम गंगाय्मुनायोर्वयम,तथाहि श्रूयते शब्दों वारिनोर्वारिघर्शजः|
चित्रकूट का रास्ता बताते हुए महर्षि भारद्वाज ने राम से कहा –गंगायमुनयोः संधिमासाद्यमनुजर्ष भौ ,कालिन्दिम्नुगच्छेताम नदीम पश्चंमुखाश्रिताम |
वेग से बढ़ती हुयी गंगा प्रयाग में आकर किल्लोल करती हुयी , यमुना को बाँहों में समेटने के लिए पश्चिममुखी हो जाती है |
कालिदास ने रघुवंश में उल्लेख किया है –राम लंका विजय के उपरांत पुष्पक विमान से ही प्रयाग में गंगा यमुना के अदभुत संगम को सीता को दिखलाते हुए राम ने कहा –
समुद्र्पत्न्योर्जल्संनिपाते पुतात्म्नामत्र किलाभिषेकात ,तत्वावबोधेनविनापि भुय्स्तानुत्याजाम नास्ति शारीर बन्धः |अर्थात ,समुद्र की पत्नी गंगा और यमुना नदियों की जलधारा के इस संगम में जो स्नान करते हैं ,स्नान करने से पवित्र उन आत्माओं को बिना तत्वज्ञान के ही मोक्ष मिल जाता है |मृत्यु के बाद फिर से जन्म नहीं लेना पड़ता |योग और ज्ञान से जो मोक्ष मिलती है ,वह मोक्ष इस संगम में स्नान से ही संभव है |
सातवीं सदी के पूर्व के काव्यों में ,प्रयाग में गंगा -यमुना के संगम की लोकोत्तर पवित्रता का ही गायन किया गया है ,जब की सरस्वती नदी जो शिवालिक के पास हिमालय से निकलकर कुरुदेश में बहती हुयी सिन्धु में मिलती थी ,उसका उल्लेख कालिदास और वाणभट्ट के ग्रंथों में मिलता है |यहाँ सिन्धु का तात्पर्य समुद्र से है |आज जहाँ राजस्थान का रेगिस्तान है वहां कभी समुद्र था |हिमालय से निकलकर सरस्वती यही सिन्धु -समुद्र से मिल जाती थी पर्यावरणीय परिवर्तन से सरस्वती नदी विलुप्त हो गई ,विद्वानों का मत है की स्मृति स्वरूप कुरुक्षेत्र का सरोवर है |भारतीय मनीषा के लिए सरस्वती ज्ञान का पर्याय है जिसके किनारे हुयी विश्व के आदि साहित्य वेदों की ऋचायों की रचना हुई |
तीर्थराज प्रयाग के त्रिवेणी में तीन नदियों –गंगा ,यमुना,- सरस्वती के ऐकान्वय –संगम की धार्मिक मान्यता कैसे दृढ हुयी ?–इसका सम्बंध् योगदर्शन या हठयोग से है |मध्यकाल में जब नाथपंथियों के हठयोग की साधना और उससे अनहद नाद के श्रवण द्वारा योगी को अमरत्व की प्राप्ति का विश्वास और प्रचार उत्तर भारत में बहुत तीव्र होता जा रहा था ,तभी प्रयाग संगम में गंगा -यमुना के साथ पाताल से सरस्वती के संगम की अवधारण बलवती हुयी |गंगा यमुना के संगम की महनीयता से प्रभावित होकर योगियों ने गंगा को इडा तथा यमुना को पिंगला कहा अमृत सिद्धि तब होती है जब कुण्डलिनी नाभि –पाताल लोक से जागकर ब्रह्मरंध्र में पहुंचकर सहस्रदल कमल को खिला देती है |ब्रह्मरंध्र में इडा -गंगा ,यमुना -पिंगला ,तथा सुशुम्ना-सरस्वती का संगम होता है ,तो अमृत की वर्षा होती है जिसका पानकर श्रद्धालु कालजयी हो जाता है | तीर्थराज प्रयाग का अक्षय क्षेत्र ही ब्रह्मरंध्र है |सरस्वती की अवधारणा ने संगम के वर्चस्व और हठयोग के बीच संभावित टकराव को समन्वित कर सनातन परंपरा को नई दिशा दी |
कुम्भ के अवसर पर देश के विभिन्न भागों से उपस्थित होने वाले विभिन्न मतावलम्बी .ऋषि -मुनि ,मनीषी ,विचारक जो सारस्वत चर्चा करते हैं ,वही सरस्वती की धारा है |धर्म, दर्शन और संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर विद्वान् अपनी विचार धारा से जन सामान्य को नहला कर उनके मन मस्तिष्क को विमल करते हैं |युगों से तीर्थराज प्रयाग का त्रिवेणी तट अनेक मत मतान्तरों में समन्वय स्थापित कर समाज को नई दिशा देता रहा है |