प्रधानमंत्री मोदी को सलाह -वैज्ञानिकों , डाक्टरों को आगे लाइए

इस आपदा में मध्यम वर्ग को भी राहत चाहिए

टिप्पणी

ड़ा महेंद्र सिंह

ड़ा  महेंद्र सिंह , मियामी अमेरिका से 

अमेरिका शुद्ध पूँजीवादी देश है और उसमे गरीबों, मजबूरों या किसी भी तरह के कमज़ोर व्यक्ति के लिए के लिए दया, करुणा का कोई स्थान नहीं. ऊपर से ट्रम्प जैसा अविवेकी राष्ट्रपति सत्ता में जिसके  निर्णयों की वजह से सारे संसाधनों के बावजूद यह आपदा यहाँ इतनी गंभीर हो गयी, फिर भी इस देश ने कोरोना समस्या के चलते आम अमेरिकी लोगों के लिए एक बड़े राहत पैकेज की घोषणा की है।एक भारत है जहाँ सरकार ने इस आपदा के बावजूद आम आदमी का जीवन और मुश्किल कर दिया है।

ताजा उदाहरण हैं:

१. अमेरिका में अमीर गरीब सभी के लिए सरकारी हो या प्राइवेट सभी अस्पतालों में कोरोना इन्फेक्शन की जांच का खर्चा सरकार उठा रही है. जबकि भारत में केवल सरकारी अस्पताल में जांच मुफ्त है जबकि वह सबके लिए उपलब्ध भी नहीं, इतने सरकारी अस्पताल ही नहीं हैं जहाँ सबकी जांच हो सके। ज्यादातर मध्यवर्गीय भारतीय लोगों को प्राइवेट अस्पतालों में जाना पड़ेगा जहाँ जांच का पैसा देना ही होगा जिसकी कीमत काफी ज्यादा रखी गयी है और वहां की जांच की गुणवत्ता भी भरोसेमंद नहीं है.

२. अभी आज की घोषणा के अनुसार भारत में अगर आपने 30 लाख का होम लोन लिया है और आपकी 15 साल की EMI बची है तो आपको 3 महीने EMI नहीं देने पर 2.34 लाख रुपये अतिरिक्त ब्याज के तौर पर देना होगा यानी आठ EMI अतिरिक्त चुकाना होंगी.

जबकि अमेरिका में लगभग प्रमुख बैंकों में समय पर मॉर्गेज (EMI) न दे पाने पर सामान्य दिनों में लगने वाली लेट फीस को माफ़ कर दिया है। और वे किसी प्रकार कानूनी कार्यवाही ( credit bureau agencies में रिपोर्ट न करने का वादा) से भी बचने का भरोसा दे रहे हैं।

३. जैसा कि पूरी दुनिया में हो रहा है अमेरिका में भी लाखों लोगों की नौकरियां छिन गयी हैं इसके चलते अमेरिकन संसद (कांग्रेस) ने हर अमेरिकन को १२०० अमेरिकन डॉलर प्रति व्यक्ति के हिसाब से तुरंत आर्थिक सहायता दी है और अगले चार महीनों तक बेरोजगारी भत्ता देने की घोषणा की है। यह १२०० अमेरिकन डॉलर हर उस अमेरिकन को मिलेगा जिसकी आमदनी ७५००० डॉलर वार्षिक तक है. यहाँ यह जानना जरुरी है कि औसत (एवरेज नहीं बल्कि मीडियन) अमेरिकन की कमाई ५६००० डॉलर वार्षिक है यानी यह सहायता सिर्फ गरीब ही नहीं बल्कि मध्यवर्ग के हर व्यक्ति को मिलेगा।

इसके विपरीत भारत में राज्य सरकारों ने केवल BPL यानी गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को प्रतीकात्मक धन देने की घोषणा की है जिसका मोटा हिस्सा ब्यूरोक्रेटस, ग्रामप्रधान, और नेता मिलकर गड़प कर जाएंगे। मध्यवर्ग के लिए कुछ नहीं है: न अस्पताल, न स्वास्थ्य सुविधाएं, न टेस्टिंग, और न ही कोई आर्थिक सहायता। हाँ उन्हें कोई राहत पहुंचाने के बजाय उलटे उन्हें दंड दिया जा रहा है: जो सरकारी सेवा में हैं उनकी तनख्वाहों से जबरदस्ती पैसे काटे गए हैं, PPF की दरें घटाई गयी हैं, बैंकों को कहा गया है कि अतिरिक्त ब्याज वसूलें, पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ाने का बिल पारित किया गया है.

मैं ट्रम्प का घनघोर विरोधी हूँ पर जो यहाँ का लोकतंत्र है उसमे ट्रम्प जैसे अराजक व्यक्ति को भी यह आपदा आने के बाद से नियमति हर दिन  विशेषज्ञों  के साथ प्रेस को सम्बोधित करना पड़ता है जिसमे दुनिया के माने जाने वैज्ञानिक Dr. Fauci और आर्थिक सलाहकार या सेना के लोग रोज आकर प्रतिदिन हो रही घटनाओं, सरकार के इंतज़ामात, रणनीति की जानकारी देते हैं और जनता को आश्वस्त करते हैं। यही नहीं प्रेस से घृणा करने के बावजूद भी ट्रम्प रोज ही पत्रकारों के सवालों के जवाब देने को मजबूर किये जाते हैं। यह होता है लोकतंत्र।

हमारे जैसे लोग जो ट्रम्प से घृणा करते हैं पर फिर भी वह प्रेस वार्ता ध्यान से सुनते हैं क्योंकि उसमे Dr. Fauci जैसा महान वैज्ञानिक, जिसने AIDS जैसे लाइलाज रोग पर विजय पाने में मुख्य भूमिका निभाई, क्या कहेगा वह सुनने की लालसा होती है। इस समय अमेरिका का चेहरा ट्रम्प नहीं बल्कि उनके बगल में खड़े डॉ. फाउची होते हैं। अमेरिका का बच्चा बच्चा Dr Fauci को चेहरे से पहचानता है और उनकी बातें ध्यान से सुनता है।

भारत के पुणे में भी Virology का एक काफी बड़ा संस्थान है, क्या किसी आम भारतीय ने वहां के निदेशक का नाम सुना है? क्या इस समय भारत सरकार की तरफ से पुणे के virology संस्थान के प्रमुख को भारत के विज्ञान का चेहरा बनाकर जनता के सामने नहीं खड़ा करना चाहिए ताकि आम जनता (कम से कम पढ़े लिखे वर्ग) को वैज्ञानिक जानकारी मिल सके। भारत में भी बेहद अच्छे वैज्ञानिक हैं, virology के क्षेत्र में बड़े बड़े नाम हैं पर उन्हें कोई मौका तो दे। ICMR जैसे मेडिकल/वैज्ञानिक संस्थाएं हैं। ICMR अपनी website पर कुछ दिन तक जानकारी देता रहा पर बाद में उससे भी यह हक़ छीन कर नेताओं/ब्यूरोक्रेट्स यानी स्वास्थ्य विभाग के हाथ में यह काम दे दिया गया ताकि वे अपनी मर्ज़ी से डाटा में घपला करें और डाटा को तोड मरोड़ कर जनता को अँधेरे में रखें।

अमेरिका में किसी ने न तो स्वास्थ्य मंत्री का नाम सुना है न ही स्वास्थ्य विभाग का, वह विभाग यहाँ नेपथ्य में काम करता है। इन आफ़त के दिनों में सामने से केवल प्रेजिडेंट जनता से सीधे और नियमित संवाद करता है और हर प्रगति या दुर्गति (जो भी कह लीजिये, फ़िलहाल तो दुर्गति ही हो रही है) उसकी फर्स्ट हैंड जानकारी सीधे यहाँ का राष्ट्रपति जनता को रोजाना देता है और टेक्निकल/वैज्ञानिक जानकारी देने के लिए डॉ. फाउची जैसे NIH (भारत के ICMR के समकक्ष) के निदेशक होते हैं। बाकी काम CDC (Centers for Disease Control and Prevention) जैसे वैज्ञानिक संस्थान देख रहे होते हैं। 

अब भी समय है भारत को विज्ञान के प्रचार और प्रसार को आगे बढने का मौका देना चाहिए ताकि लोगों में वैज्ञानिक चेतना का विकास हो। बाकी यह आपदाएं तो आती रहेंगी पर इस अवसर का लाभ उठा कर कौन बौद्धिक सम्पदा का विकास कर पाता है वह ही यह निर्धारित करेगा कि इस आपदा के बाद कौन देश पूरे विश्व का नेतृत्व करेगा। कुछ नहीं तो हल्दी पर ही एक क्लीनिकल ट्रायल करके (मेरे एक वैज्ञानिक मित्र हैं भारत के एक बेहद अच्छे संस्थान में अणु-जीव विज्ञानी हैं, जिनका यह idea है) जिनसे मेरा घनघोर राजनैतिक-वैचारिक मतभेद है पर मैं उनके विज्ञान का सम्मान करता हूँ. लगे हाथ आप यह सिद्ध कर सकते थे कि हल्दी इस महामारी के लिए कितनी उपयोगी हो सकती है। अगर आप एक हल्दी का ही एक क्लीनिकल ट्रायल शुरू कर देते तो, कुछ नहीं तो उन मज़दूरों पर ही सही जिन पर आपने कीटनाशकों का छिड़काव किया था। वे बेचारे ऐसे भी मरेंगे ही और वैसे भी आप उनके लिए कुछ नहीं करने वाले पर जैसे जर्मनी जैसे फासीवादी देशों में जेलों में बंद यहूदियों पर फासिस्टों ने क्लीनिकल ट्रायल किये थे वैसा ही कुछ कर देते, शायद आपका विज्ञान कुछ आगे बढ़ता।(डिस्क्लेमर: गरीब मज़दूरों पर क्लिनिकल trial वाली बात मेरी राय नहीं सिर्फ भारत में निरंतर बढ़ती विज्ञान विरोधी मानसिकता से उपजी मेरी निराशा है! मुझे इस बात का पूरा संज्ञान है कि इसके लिए बाक़ायदा biomedical ethics के मानकों का पालन करना होगा)

नोट :  कैंसर  रोग विशेषज्ञ ड़ा महेंद्र सिंह उत्तर प्रदेश के बलरामपुर ज़िले के मूल निवासी हैं। एस जी पी जी आई से अध्ययन के बाद इस समय अमेरिका में कार्यरत हैं। 

ये लेखक के निजी विचार हैं।

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