वेद चिंतन विचार – प्रमाद
वेद चिंतन विचार यन्ति प्रमादमतंदृा ।
प्रमाद के कारण हमारे जीवन में प्रगति नहीं होती ,हम रुंध जाते हैं। धर्म और आध्यात्मिक साधना में तो प्रमाद मारक है ही ।
किंतु दैनंदिन साधारण व्यवहार में भी वह काफी हानिकारक होता है।
वह तो हमारा सर्वांगीण शत्रु है।
इसलिए सावधानी से काम करना चाहिए ।
प्रमाद से बचने के लिए मनुष्य को स्वतंत्र साधना करनी पड़ती है।
भगवान ने गीता में भी यही शब्द कहा है -यदि ह्याहम् न वरतेयम जातु कर्मन्यम तांड्रित; ।
यदि मैं खुद आनंदित होकर काम न करूँ , तो लोगों के ख्याल से आतंकित होकर में काम करता हूं तो ये सारे लोग नीति भृष्ट,विचार भ्रष्ट हो जाएंगे और सृष्टि का विनाश होगा।
इसलिए लोगों के ख्याल से आतंकित होकर मैं काम करता हूं ।
निद्रा और तंद्रा में फर्क है। आलस्ययुक्त निद्रा तंद्रा है। और स्वप्न रहित विश्रांति ही निद्रा है ऋग्वेद का यह मंत्र है।
आचार्य विनोबा भावे