भाषाओं का भविष्य ****************


आज संवाद सम्प्रेषण तकनीकी Communication Language & Technology के

मैं इस साल के यूपीएससी टाॅपर शुभम पर एक कार्यक्रम  देख रहा था, जिसमें उनके गांव में बाजाब्ता गाजे-बाजे के साथ उनका स्वागत हुआ और उनको भी दो शब्द बोलने के लिए कहा गया। इस प्रकार का अभिनंदन समारोह थोड़ा अटपटा तो लग रहा था;  लेकिन भारतवर्ष में आईएएस की प्रतियोगिता देश की बेहतरीन प्रतिभाओं को आकर्षित करती है और फलस्वरूप  प्रतियोगिता इतनी कठिन है कि इस सफलता पर किसी भी गांव-समाज का गौरवान्वित होना सहज ही है। खास कर तब, जब कोई प्रतियोगी ग्रामीण और पिछड़े परिवेश से आया हो। बिहार का होने के कारण शुभम पर गौरव मुझे भी हुआ। 


लेकिन मेरा सबब शुभम के दो शब्दों से है। उन्होंने शुरू में ही खेद व्यक्त किया कि वे मातृभाषा में बोलने में सहज नहीं, इसलिए हिंदी में बोलेंगे। हमारी अगली पीढ़ियां अपनी मातृबोलियों से पूरी तरह कट चुकी हैं, तो शुभम की यह ईमानदार स्वीकारोक्ति अच्छी ही लगी। मुझे अचरज उनकी हिंदी पर हुआ। उनका संक्षिप्त भाषण अनगढ़ और अशुद्धियों से भरपूर था। मुझे संदेह है कि उनकी अंग्रेजी का भी यही हाल होगा। 


एक समय आईसीएस और आईएएस अधिकारी अपनी विद्वता और भाषा पर अपने अधिकार के लिए भी जाने जाते थे। लेकिन भाषाई कौशल का यह क्षरण कोई अनूठा नहीं। स्वतंत्रता आंदोलन के अधिकतर नेता भी अपनी प्रबुद्धता के लिए जाने जाते थे, और आज के राजनेताओं को हम देख ही रहे हैं।  मैं  कई बार बैंकों के ऐसे प्रोबेशनरी ऑफिसर्स से भी मिला हूं, जिनकी भाषा के स्तर को विपन्न ही कहा जा सकता है -अचरज होता है कि इनका चयन कैसे हुआ होगा।   
विचार करने पर इसके कई कारण प्रतीत होते हैं :: 


पहला और सबसे स्पष्ट कारण तो शिक्षा का गिरता स्तर और उसका तथाकथित रूप से रोजगारोन्मुखी होते जाना है। जमाना गेस पेपर्स और कोचिंग सेंटर्स का है जहां हम साहित्य, इतिहास, भौतिकी अथवा रसायन के अध्येता और अनुरागी नहीं, बल्कि बेहतरीन नैसर्गिक प्रतिभाओं को भी प्रतियोगी परीक्षाओं के फर्मे में ढ़ाल कर नौकरशाह और इंजीनियर और विक्रेता बना रहे हैं। इस पढ़ाई में भाषा का अवकाश कहां? 


इससे जुड़ा हुआ एक दूसरा कारण है शिक्षा में मानविकी के विषयों का घटता महत्व। बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध, जहां मानवता के एक बड़े हिस्से को गुलामी की बेड़ियों से आजाद कराने की जद्दोजहद में बीता, वहीं उसका उत्तरार्द्ध मानव जाति को भूख, गरीबी, कुपोषण और बीमारी से मुक्त करने के उद्यम को समर्पित था, जिसमें कर्मठ विज्ञान की ज्यादा जरूरत थी, न कि भावुक कलाओं और ललित साहित्य की। विज्ञान के विद्यार्थी के लिए अपने विषय में निष्णात होना ही काफी है, भाषा वहां गौण है। तथापि चूंकि भाषा के संस्कार तो स्कूल की प्रारंभिक कक्षाओं में ही पड़ जाते हैं, इसलिए यह तर्क बहुत मजबूत नहीं। और कई बार तो मानविकी, यहां तक कि देश-विदेश से एमबीए की डिग्री लेने वाले लोगों तक की भाषा दुखी कर जाती है। 
एक और सकारात्मक कारण भी रहा। न सिर्फ हमारी राजनीति, बल्कि सामाजिक व्यवस्था, अर्थजगत और जीवन के अन्य क्षेत्रों  में भी आज ज्यादा व्यापक  प्रजातांत्रिक भागीदारी है। पिछड़े इलाकों और पिछड़े वर्गों/ वर्णों के लोगों ने विशिष्ट जनों के सामंतवादी किलों में सेंध लगा कर हर जगह अपने रास्ते बनाये हैं। ऐसे लोगों में नैसर्गिक प्रतिभा की कमी नहीं, लेकिन शैक्षणिक आभिजात्य की पृष्ठभूमि नहीं होने के कारण  भाषा-सौष्ठव का अभाव संभव भी है, और क्षम्य भी। 


यहां संप्रेषण के सर्वमान्य माध्यम के रूप में लगभग चार पांच सहस्त्राब्दियों तक अखंड राज करने वाली भाषाओं के भविष्य पर भी एक नजर ड़ालना समीचीन होगा। इतिहास में पहले भी भाषाएं समसामयिक चुनौतियों से रू-ब-रू हुई हैं। माना जाता है कि वेदभाषा संस्कृत ने श्रुति के सहारे ही अद्भुत परिपक्वता हासिल की और सहस्त्रों वर्षों के बाद ही उसे किसी लिपि के अवलम्ब की आवश्यकता हुई। जबकि आज बिना लिपि के किसी उन्नत भाषा की कल्पना भी कठिन है।  लचीलेपन के अभाव में लैटिन, ग्रीक और संस्कृत जैसी भाषाओं के अवसान का इतिहास भी हम जानते हैं और सहजता और ग्रहणशीलता के कारण अंग्रेजी, उर्दू और हिंदी को लोकप्रिय होते भी हमने देखा है।


तो क्या कल यह संभव नहीं कि वाचिक और लिखित  भाषाएं अपना वर्चस्व खो दें और हम फिर से संकेत भाषाओं और मूक फिल्मों के दौर में पहुंच जायें। यदि ऐसा हो भी जाये, तो यह एक समयानुकूल परिघटना ही होगी – आज एक परिवार में यदि चार लोग हैं तो चारो साथ बैठे होकर भी अपने अपने मोबाइल फोनों पर व्यस्त रहते हैं और दूसरों से उनका प्रायः संप्रेषण शब्दों के बजाय इमोजी, मीम और कूट शब्दखंडों के सहारे ही होता है। चिट्ठियों की जगह ईमेल ने ले ली और अब व्हाट्सएप से आप सीधे बातचीत ही कर लेते हैं। लिखने की कोई जरूरत ही नहीं। अलग-अलग एप्स ने हमको शब्दों के जंजाल से लगभग मुक्त ही कर दिया है। 


तो कल की तिथि में जावा, सी +, कोबोल और उनकी संतानें भले ही बच जाएं; संप्रेषण पर अंग्रेजी, हिंदी और अन्य भाषाओं का एकाधिकार बस पचास सौ सालों तक चलेगा, ऐसा मुझे लगता है।‌


संजय कुमार

लेखक भारतीय स्टेट बैंक के अवकाश प्राप्त अधिकारी हैं।

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