गौरैया का घोंसला
संतोष कुमार पांडेय, कानपुर
रोजाना की तरह सुबह की सैर के लिए निकलने की तैयारी कर रहा था। दरवाज़ा खोला और बाहर आया। सुन्दर किन्तु अलसायी सुबह स्वागत के लिए जैसे तैयार खड़ी थी। हल्की –ठंडी पवन जैसे नवजीवन और नव –उर्जा का सन्देश लिए हो। जीने के अभी दो ही पायदान उतरा था कि मुझे तीसरे पायदान पर कुछ पड़ा हुआ दिखाई दिया। थोडा झुका तो समझ में आ गया कि यह टूटे हुए अंडे के अवशेष हैं। सीधे खड़े हो कर ऊपर देखा तो नज़र छत पर पंखे के लिए बने होल पर टिक गयी। कुछ घास –फूस उस छोटे से होल से झांक रहा था। यह, उस नन्हे से पंक्षी गौरैया का छोटा सा आशियाना था। इस छोटे से संकरे स्थान पर बड़ी कठिनाई से गौरैया के जोड़े ने अपना घोंसला बनाया था। कंक्रीट के जंगल में तिनका बड़ा महंगा होता है। इसलिए इसकी क़ीमत वाकई ज़्यादा थी। किन्तु कम स्थान होने के कारण अंडा सध नहीं पाया होगा इसी कारणवश नीचे गिर गया। अपने घोंसले और उसमे अपने नन्हे बच्चों का अरमान लिए, सुन्दर और शांत पक्षियों के परिश्रम का बड़ा ही रचनात्मक परिणाम था यह घोंसला! लेकिन मन उन अन्डो के अवशेषों को देख व्यथित हो उठा था।
आज छुट्टी का दिन था। इतनी सुबह गौरैया के टूटे हुए अंडे के अवशेष देख कर मन दुखी हो चला था। अभी सुबह का हल्का सा अँधेरा था, मैं चुपचाप सैर के लिए घर के पास ही बने स्टेडियम की और बढ़ गया। स्टेडियम में जॉंगिंग के दौरान मेरी नज़र वहां पर उगी हुई सुखी घास पर पड़ी। मन में एक आईडिया आया और मैं रुक गया। क्यों न इसी घास से एक वैकल्पिक घोंसला बनाया जाये? इसमें गौरैया और उसके बच्चे सुरक्षित रह सकते थे। फिर क्या था, जल्दी– जल्दी मैंने उस सुखी और आकार में लगभग एक फुट लम्बी घास को ज़मीन से उखाड़ना शुरू कर दिया। थोड़े ही समय में दोनों मुठ्ठी भर के घास हो गयी थी। मुझे लगा कि इतनी घास गौरैया के नेचुरल घर के लिए पर्याप्त होगी ।
घर पहुँच कर घोंसला बनाने की तैयारी शुरू कर दी थी। एक पुरानी सींक वाली झाड़ू घर पर पड़ी हुई थी। बिजली के तार वाले टेप की मदद से उन्हीं सींकों का एक घोंसलानुमा ढाँचा खड़ा किया और उस पर चारो और से घास फिक्स कर दी। फिर यही काम अन्दर की तरफ़ से भी किया। ऊपर रस्सी के ज़रिये उसको गौरैया के मूल घोंसले के पास दीवार पर हुक से लटका दिया। इसके बाद बारी थी, गौरया जोड़े के गृह प्रवेश की । शुरू के अनेक दिनों तक तो गौरैया उस तक फटकी तक नहीं। अपने मूल घोंसले में जाने से पहले वे हुक में बैठा करती थीं। किन्तु अब उन्होंने अपने घोंसले में जाने के लिए दूसरी दिशा का रास्ता अपना लिया था। खिड़की के पार से मैं नवनिर्मित घोंसले के प्रति प्रदर्शित की जा रही अरुचि से थोडा निराशा होने लगा था । जबकि दूसरी ओर अण्डों के गिरने और टूट जाने का क्रम यथावत जारी था । एक दिन पुनः टूटे अंडे के अवशेष दिखाई दिए। घरों में बिल्ली से गौरैया को खतरा होता है किन्तु जिस स्थान पर घोंसला बना हुआ था वहां बिल्ली का पहुंचना मुमकिन नहीं था। इस प्रकार से अण्डों को नुकसान पहुँचने का एक ही कारण स्पष्ट था। यह था घोंसले का संकरी जगह पर बना होना।
आख़िर तक़रीबन दो हफ़्ते इंतज़ार के बाद ,मार्च के आरंभ में बालकनी में कुछ हलचल दिखी थी। चूं– चूं की आवाज़ से पूरा वातावरण गुंजायमान था। गौरैया के एक जोडे को शायद मेरे द्वारा निर्मित अपना नया आवास पसंद आ गया था। जहाँ दिन –रात अनवरत वाहनों का शोर सुनने की आदत सी हो गयी थी, वहीँ पर नन्हे पंक्षियों की चहचाहट एक सुखद अनुभव बन गयी थी। उनका फुदकना, आपस में अठखेलियाँ करना और हवा में उछल –उछल के उड़ान भरना आदि गतिविधियाँ चुपचाप खिड़की के पार से देखा करता था। गौरैया ने मशीनीकृत जीवन में जैसे नैसर्गिकता का पुट भर दिया था। गाँव छूटा और उसके साथ वो सारे संगी –साथी। इनमे गौरैया भी एक हुआ थी। वहां पर उषाकाल में आंगन में गौरैया के कलरव से ही सुबह की नींद खुलती थी। सुबह जब दादी चूल्हे में पराठे सेंकती तो आटें की छोटी छोटी गोलियां आंगन में बिखेर दिया करती थीं। हम सब और गौरैया एक साथ ही नाश्ता करते थे। यही दोपहर के भोजन के समय भी होता था। खेतों में असंख्य गौरैया के हजारों झुण्ड बनते – बिगड़ते थे। मन, उन नन्हे पंक्षियों की मस्ती भरी उड़न देख कर झूम उठता था। घर, खेत, खलिहान हर जगह गौरैया ही गौरैया और हवा में घुली हुई उसकी चहचाहट की मिठास। किन्तु नगरीय जीवन इन सबसे अलग था। यहाँ तो वह अपने अस्तित्व के लिए ही जूझ रही है। जब से नगर में रहना शुरू किया तो पहली बार ऐसा हुआ था की बचपन की बिछड़ी साथी मुझे फिर से मिल गयी हो।
जब वह अपना घोंसला बना रही थीं तो मुझे एक बार लगा था कि उस संकरे स्थान में उन्हें परेशानी होगी। किन्तु मैंने उनको छेड़ने का जोखिम न उठाने की ठानी थी। यही सोचा कि उनको जो जगह पसंद आये वहीँ पर आराम से रहें। मन में बस एक ही इच्छा थी कि वे हमारे आस –पास बस भर जाएँ। सुबह– सुबह ही वह चिड़ियों का जोड़ा दिखयी देता था। जैसे– जैसे दिन चढ़ता, गौरैया की उपस्थिति कम होने लगती थी। एक दिन विश्वविद्यालय के लिए लिए निकला था कि नज़र बालकनी में पंखे के लिए ऊपर बने होल पर टिक गयी थी। वहां से कुछ –एक घास फूस झांक रहा था। समझ में आ गया कि गौरैया घोंसले के लिए अपना स्थान तय कर चुकी है। किन्तु यह स्थान बहुत ही संकरा और छोटा था। पर धीरे– धीरे गौरैया की गतिविधियाँ बढ़ने लगी थीं। अब वे सारे दिन देखे जा सकते थे। जिस दिन विश्वविद्यालय नहीं जाना होता था, लगभग पूरे दिन ही उनको देखने का अवसर प्राप्त हो जाता था। किन्तु यह बात अब पुरानी हो गयी थी। एक इंसान द्वारा निर्मित उनका नया घर उनका इंतज़ार कर रहा था।
आखिर मेरा इंतजार एक दिन ख़त्म हुआ। एक दिन प्रातःकाल दोनों गौरैया मेरे द्वारा निर्मित घोंसले पर बैठी हुई दिखीं। बात समझ में आ गयी थी कि उनके अस्तित्व को चुनौती देने वाले मनुष्य पर वे इतनी आसानी से कैसे विश्वास कर सकती थीं? जब गौरैया ने मेरे प्रयास को मान्यता दे दी तो मैंने उस नन्हे से जीव के प्रति आभार व्यक्त किया। उनके लिए भोजन और जल की भी व्यवस्था कर दी ताकि नन्हे अतिथियों को कोई असुविधा न हो। पुराना सम्बन्ध पुनः जीवित हो उठा था। अब मेरे आंगन में फिर से गौरैया आ कर फुदक रही थी। अब मुझे साप्ताहिक अवकाश की प्रतीक्षा बड़ी बड़ी व्यग्रता से होती थी कि मुझे थोड़ा समय मिले और उनका साथ। घोंसला बनाने वाले हाँथ ज़रूर मेरे थे किन्तु इस विचार अंकुरण गौरैया से ही हुआ। उन्हें घोंसले में बैठा देख जो आनंद मिलता था, वह शानदार था। बचपन के एक पुराने दोस्त से मुलाकात ने मुझे असीमित आनंद प्रदान किया। मैंने विश्वविद्यालय में छात्रों को जब यह बात बताई तो वे गौरैया के विषय में और जानकारी प्राप्त करने के लिए उत्सुक हो उठे थे । विद्यार्थियों ने मुझसे अनेक प्रश्न किये गए। अब लम्बी – लम्बी परिचर्चाओं में गौरैया शामिल हो चली थी। कोई विद्यार्थी कहता कि वह इस विषय पर डॉक्यूमेंट्री बनाएगा तो किसी ने इच्छा व्यक्त की कि वह अपने घर में भी ऐसा ही घोंसला बनाएगा।