आज का वेद चिंतन : वेद और बुद्ध

बुद्ध भगवान ने स्पष्ट शब्दों में कहा था : भाइयों *न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचंन। अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्मों सनन्तनों*।’

वैर से वैर कभी शांत नहीं होता। अग्नि के शमन के लिए घी नही, पानी ही चाहिए।

दुश्मनी से दुश्मनी बढ़ती ही है। यह उनकी शिक्षा का सार है।

वैसे यह जो तालीम उन्होने दी, वह उनके जमाने में नयी नहीं थी, सैकड़ों संतों ने उसे दोहराया था।

भारत में सब तरह का तत्वज्ञान, सैकड़ों वर्षों का अनुभव, वेद, उपनिषद, सांख्य, गीता आदि निर्माण हो चुके थे और हमें इन सबने निर्वैरता की ही शिक्षा दी थी।

ऋषियों ने गाया था- *मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीणक्षन्ताम्। मित्रस्य अहम् चक्षुषा सर्वाणि भूतनि समीक्षे*।

सारी दुनिया मेरी तरफ मित्र की निगाह से देखे। अगर हम ऐसा चाहते हैं, तो हमें भी दुनिया की तरफ उसी मित्र भावना से देखना होगा।

दुनिया को मित्र या शत्रु बनाना मेरे हाथ की बात है। मैं चाहूं तो मित्र बनाऊं, चाहूं तो शत्रु। यह सारा अभिक्रम मेरे हाथ में है।

दुनिया को मैं मित्र ही बना सकता हूं, शत्रु नहीं बना सकता, यह वेदों ने हमें समझाया था। बीच में हजारों वर्षों में इसकी कसौटी नहीं हुई।

आखिर फिर से भगवान बुद्ध ने हमें यह अनुभव बताया।

यह जो बात बुद्ध भगवान ने कही, वह नयी नहीं थी, परन्तु शायद इतनी स्पष्टतापूर्वक पहले नहीं कही गयी थी।

गौतम बुद्ध ने कहा- *पब्बट्ठो व भुम्मट्ठे धीरो बाले अवेक्खति*। पर्वत शिखर पर चढ़ा हुआ आदमी भूमि-स्थल पर क्या किया जा रहा है, उसको देखता रहता है और वहां से मार्गदर्शन देता रहता है।

हम जब कभी टीले पर चढ़ते है, तो हमें हमेशा गौतम बुद्ध का यह वचन याद आता है।

सत्पुरूष समस्त लोगों को उसी तरह देखता है, जिस तरह किसी पहाड पर अवस्थित मनुष्य नीचे खेतों में काम करने वालों को देखता है।

ऊपर वाले को समग्र-दर्शन होता है,दूर – दर्शन होता है,तटस्थ-दर्शन होता है। नीचे रहने से समग्र-दर्शन नहीं हो सकता है।

नीचे रहकर मनुष्य व्यवहार में फंसा हुआ रहता है। लेकिन वही मनुष्य जब ऊपर खुली हवा में आता है तो निर्लिप्तता का अनुभव करता है।

इस तरह का समग्र दूर, निर्लिप्त दर्शन ही सच्चा दर्शन है। एकांकी, संकुचित और आसक्त दर्शन, दर्शन ही नहीं है।

बिलकुल ठीक ऐसी ही भाषा वेद में आयी है- *नि पर्वतस्य मूर्धनि सदंता जनाय दाशुषे वहन्ता* ”

पर्वतों के शिखर पर चढ़कर दुनिया में काम करने वाले सेवक, लोगों की इच्छा-शक्ति,बढ़ाते रहते हैं।

दिया की इच्छा शक्ति, संकल्प-शक्ति क्षीण हो गयी है. प्रेरणा क्षीण हो गई है।

उसको वे पर्वत के ऊपर चढ़कर बढ़ाते रहते हैं यानी आचरण की दृष्टि से स्वय ऊपर बढ़ने की कोशिश करते ही हैं, परन्तु लोगों के धरातल पर आकर भी सोचते हैं और लोगों की इच्छा शक्ति बढ़ाने की कोशिश करते हैं।

बौद्ध धर्म में जो विपश्यना (ध्यान) विकसित हुई है, उसका मूल वेद में है- *यो विश्वाभि विपश्यति भुवना सं च पश्यति*

जो विश्वाभिमुख होकर ध्यान करता है, विपश्यना करता है, वह श्रेष्ठ है।

विपश्यना के साथ संपश्यना भी होती है। दोनों मिलकर परिपूर्णता आती है।

विपश्यना यानी विश्व को सामने रखकर। विपश्यना यानी भगवान इसमें हैं, उसमें हैं, सबमें हैं। अलग-अलग सबमें।

और संपश्यना यानी सब इकटठा सामने रखकर ध्यान-साधना करना।

अभिविपश्यना और अभिसंपश्यना, दोनों विश्व के अभिमुख रहकर करना है।

वेद
विनोबा विचार की प्रस्तुति : रमेश भैया

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