संत विनोबा का नव-विचारवाद –विकल्पहीनता में विकल्प की आशा

लोकतान्त्रिक राजतंत्र और वाणिज्यतंत्र के हाथों कठपुतली की तरह नाचते हुए आज का मानव एक ऐसी स्थिति तक पहुँच चुका है जहाँ उसे वीभत्स भविष्य की संभावनाओं की आहट होने लगी है