पीले पत्तों का सफरनामा

कहानी

डा ज्ञानेंद्र मिश्र

डा ज्ञानेंद्र मिश्र

बूढा बाहर खिड़की से देख रहा था।खिड़कीयां ज़िन्दगी का अहम हिस्सा होती हैं और एहसास दिलाती हैं कि अन्दर के अलावा बाहर भी बहुत कुछ चल रहा है । अंघेरा हो गया था। सड़क पर आती जाती गाड़ीयों की बत्तियां जलती बुझती नजर आ रहीं थी, ठीक उसके मन की तरह।धुप्प अंधेरे में खिड़की से बाहर देखना उसे हमेशा अच्छा लगता था । उजियारे की सुगबुगाहट उसे उर्जा देती थी ।उसके कमरे के बाहर पार्टी चल रही थी । पोती शाम को ही आ गयी थी ।धीरे धीरे उसके दोस्त भी आ गये थे। हल्के संगीत के साथ डांस वांस भी हो रहा था । बेटा और बहू दोपहर मे ही निकल गये थे।नौ बज गये थे। बूढे को भूख लग गयी थी। उसने एक गिलास ठंढा पानी पीया । शायद भूख कुछ कम हो जाय।पर भूख फिर भी लग रही थी।उसे लगा लोग उसे भूल गये हैं।वो नहीं चाहता था कि वो कमरे से बाहर जाये और बच्चों की पार्टी मे ब्यवधान डाले। उसने चादर ओढी और बिस्तर पर लेट गया । पर भूखे पेट नीद आये तो कैसे आये।

थोड़ी देर मे संगीत बजना बंद हो गया।कुछ देर बाद दरवाजा खुला, पोती थी। उसने कहा,  “बाबा,सो गये क्या ? चलो खाना खा लें।“बूढा जादू के जोर से उठ खड़ा हुआ ।भूख जो लगी थी ।बाहर सब शान्त था ।कमरे मे तेल मसालों की गन्ध भरी पड़ी थी । पर सारा कचरा साफ था। पोती ने थाली मे खाना परोसा और छोटे से प्लेट मे केक।बूढा मुस्कुराया और जेब मे हाथ डाला।उसने लकड़ी के करीने से तरासे हुये कुन्डल निकाले और पोती की ओर बढा दिये।

“हैपी बर्थडे बेटा “

पोती ने कुन्डल ले लिये। उसने ध्यान से देखा ,पिछले साल बाबा के साथ घूमते हुये उसे ये कुन्डल पसन्द आये थे। पर उसने लिये नहीं, कुन्डल बहूत महगें थे ।बाबा बहाने बना कर पीछे वापस चले गये थे । उसने अब समझा कि बाबा उसके लिये कुन्डल लेने गये थे । और तबसे एक एक दिन गिन रहे थे कि कब उसका बर्थडे आये और उसे दें ।

बूढा तन्मयता से खाना खा रहा था, बिना इसकी परवाह किये कि सारे लड़कियां और लड़के उसे घूर रहे थे । पोती मन ही मन पछतायी काश वो सुबह ही बाबा के पास चली गयी होती। उसे लगा कि सुब्ह से शाम तक का इंतज़ार बाबा के लिए कितना लम्बा रहा होगा । वो शायद कुण्डल देने आये भी हों पर वो बाहर पार्टी के इंतज़ाम में व्यस्त रही होगी । शायद बाबा चाहते थे कि वो उनके पास जाये, उनसे बातें करे, हंसे और वो उसे देख कर खुश हो जाएं । वे उपेक्षित बुढ़े के बजाय बाबा की  तरह ही रहना चाहते थे । उसका गला रूध गया पर वो नहीं चाहती थी कि बाबा उसके पश्चाताप के आँसू देखें । उसने अपना जी कड़ा किया और वास रुम मे चली। आखें धोयीं,पुराने कुन्डल उतारे और बाबा वाला कुन्डल पहना ।वापस लौटी,तब तक बूढा खाना खा चुका था। उसने पूछा- “देखो कैसे लग रहे हैं ?”

“तुम तो कुछ भी पहनो अच्छे ही लगते हैं ।अच्छा हैं।“

लड़की ने श्रदा से बूढे का पैर छूआ। बूढा खूश हो गया। उसके आंखो में आंसू आ गये । भोजन का स्वाद कई गुना बढ़ गया । पेट भरने से भूख कहां मिटती है और शरीर का तो भूख से अदभुत रिश्ता है । मन तृप्त हो जाए तो लगता है कि शरीर को कभी भूख लगी ही नहीं  थी ।

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बहू नीचे पहूची ही थी कि उसे सूचना मिल गयी कि बूढउ बाहर निकले थे, गिरे थे और लोग उन्हें घर छोड़ कर गये थे। उसने हमेशा मना किया था कि अकेले बाहर न निकलें पर बूढउ माने तब न।वो भन्नाती हुयी लिफ्ट मे चढी और दरवाजे के सामने पहुच कर जोर से कालबेल दबाया। बूढा सफेद कुर्ता पाजामा पहने था।उसने शान्ति से दरवाजा खोला। बहू बोली-“आज आप फिर अकेले निकले। इतनी बार मना किया फिर भी आप माने तब न। कहां गये थे,कितनी चोट आई है?”

बूढ़ा विल्कूल शान्त था । उसने धीरे से कहा“आज बरसी थी। सोचा मंदिर हो आऊ, थोड़ा पैर फिसल गया था बस। कोई ऐसी चोट नहीं आयी हैं ।“बहू ने बूढ़े के कमरे मे झांका । बुढिया की तस्वीर के सामने अगरबत्ती की राख पड़ी थी ।कमरे मे फैली भीनी भीनी खूसबू बुढ़िया  की याद दिला रही थी । बूढ़े ने कहा“आज मैं खाना नहीं खाऊगा” । फिर सोने चला गया ।

बहू सोचती रही अगर उसे बुढ़िया की पुन्यतिथि याद रहती तो वो बूढ़े को स्वयम् मंदिर ले जाती । पर इस आपाधापी मे कहां याद रहता है । पर उसे कुछ खटक सा रहा था ।उसे बूढ़े का भरोसा नहीं था । वो अपनी मर्जी का मालिक था ।किसी की बात नहीं मानता था ।उसे उसका कुरता पायजामा पहनना खटक रहा था ।वो बिल्कुल वेदाग था । अगर बूढ़ऊ गिरे थे तो कुछ तो निशान होने चहिये थे ना । बूढउ ऐसे भी न थे कि तिथि पर सफेद कुर्ता पाजामा पहन कर फिल्मी तरीके से शोक मनाते ।

बहु  का जी नहीं माना, वह बूढ़े के कमरे में घुस गई। बूढ़ा बेसुध सो रहा था। उसने कुर्ते की बांह सरकाई, उसका कलेजा मुंह को आ गया, पूरी बांह लहूलुहान थी। बूढ़े ने कोई क्रीम लगाई थी ।उसने दूसरी बाह देखी वहां भी यही हाल था ।उसने जल्दी से पायजामा सरकाया, दोनों घुटने लाल थे।बहु खड़ी हो गई, तो बुढऊ बुढ़िया की बरसी नहीं मना रहे थे ,कुर्ता पायजामा बहू से घाव छिपाने के लिए पहने गए थे ।अभी भी वह नहीं चाहते थे कि उनके कारण बहू परेशान हो। वह सोए नहीं थे दर्द से और दर्द की दवाओं से बेसुध थे। हाथ ठीक से हिलता तब न खाना खाते, वह उपवास नहीं कर रहे थे  उससे घाव छिपा रहे थे । बूढऊ सबसे रिश्ता निभाते हैं, दर्द का रिश्ता। उसकी आंखें भर आई ,उसने फोन उठाया और डॉक्टर को फोन मिलाने लगी।

-3-

नीम का पेड़
नीम का पेड़

बूढ़ा खिड़की के पास बैठा था । सामने नीम के पेड़ की एक डाली सूख गई थी । उसमें तोते ने अपना बसेरा बना रखा था । तोते के बच्चों के अब पंख निकलने शुरू हो गए थे ।वे बार-बार डाल मे में बने छेद से बाहर झांक रहे थे । वह जानता था कि कुछ दिनों में बच्चे उड़ जाएंगे । फिर दूसरा जोड़ा आएगा, फिर बच्चे पैदा होंगे, उनके पंख निकलेंगे और उनके उड़ने के साथ य़ही प्रक्रिया निरंतर चलती रहेगी। दूर सड़क पर बसेँ आ जा रही थी। जाने कितने लोग रोज इन बसों से चलते हैं । पर उसकी जिंदगी थम गई थी। यूं ही खिड़की से आते जाते बसों को देखना और फिर पुरानी यादों की जुगाली करना। उसका मन जिंदगी से उचाट होता जा रहा था। पोता अब बड़ा हो गया था । कभी कभी वही उसके कमरे में आ जाता था। दरवाजा खड़का । उसने देखा पोता ही था , उसने आते ही उसे बिस्तर पर बैठने को कहा “बाबा बैठो ना”.

वो बैठ गया। पोता उसकी पीठ पर सवार हो गया और गाने लगा “लकड़ी की काठी, काठी का घोड़ा….” और पोते ने झूलना शुरू कर दिया । फिर पीठ से सरक कर उसकी गोद में आ गिरा । उसने बाबा की तरफ देखा वह हंस रहे हैं या नहीं पर बूढ़े के चेहरे पर मुस्कान नहीं थी ।वो वापस पीठ पर चढ़ गया और फिर लकड़ी की काठी काठी पर घोड़ा गाने लगा ।वो  फिर से सरक कर उसकी गोद में आ गया । उसने बाबा के चेहरे की ओर देखा बूढ़े के चेहरे पर मुस्कान आ गई । बच्चा खुश हो गया ।वो फिर से पीठ पर सवार हो गया ।इस बार गोद में आने पर बूढा हंस पड़ा । बूढ़े ने उसे ज़ोर से भीचा । “नन्हें उस्ताद तुम जीने को मजबूर कर देते हो ।“ फिर दोनों मिलकर जोर-जोर से गाने लगे लकड़ी की काठी काठी का घोड़ा घोड़े की दुम पे जो मारा हथोड़ा”। बहू दोनों बच्चों को डांट रहे थी।“ शोर मत करो”

-4-

रात के 10:00 बज गए थे । बुढा बेचैन था, वह जानता था कि बेटा बहू को उसके कॉलेज के उत्सव में ले गया है पर फिर भी बेचैन था कि बहू  अब तक आयी क्यों नहीं।वो बार-बार दरवाजे के पास जाता था, शायद अब घंटी बजे और  उसे दरवाजा खोलना पड़े। बेटे के पास चाबी थी और दरवाजा बाहर से भी खुल सकता था पर वह फिर भी वह बेचैन था, कमरे में टहल रहा था ।धीरे-धीरे 12:00 बज गए । धीरे से दरवाजा खोलने की आवाज आई, शायद वे बाहर आ गए थे और नहीं चाहते थे कि कोई शोर हो और वह जग जाए । बूढ़ा उनकी ओर बढ़ा ।वह जोर जोर से चिल्लाने लगा “यह भी कोई आने का समय है । तुमने बहू की आदत बिगाड़ रखी है।”

जोर-जोर से चिल्लाने से पड़ोसी भी बाहर निकल आए। बेटा बार-बार कह रहा था ।“ हां पिताजी अब वह जल्दी घर आ जाएगी, मैं ध्यान दूंगा, आप चिंता न करें। पर बूढा चिल्लाये जा रहा था। किसी तरह से बेटे और बहू ने मिलकर उसे शांत किया ।पड़ोसी वापस चले गए, जब सब शांत हो गया तब बहू ने सिसकते हुए पूछा “पिताजी इतना चिल्ला रहे थे, जब कि उनको मालूम था हम लोग देर से आएंगे पर तुमने एक बार भी उनकी खिलाफत नहीं की, सिर्फ हां पिता जी, हां पिताजी, बोलते रहे। सुबह में पड़ोसियों को क्या मुँह दिखाऊंगी । बूढ़े के कान जैसे दरवाजे से चिपक गए थे, वह जानना चाहता था कि बेटा किसका पक्ष लेगा।

बेटा बोला“तुम जानती हो, पिताजी को हाई बीपी है और अब तो मधुमेह की भी शिकायत है। यदि में भी चिल्लाता तो उनकी तबीयत बिगड़ सकती थी।वे बीमार पड़े तो क्या तुम उनको छोड़कर कॉलेज जा सकोगी या में वापस जा सकूंगा? मुझे पड़ोसियों से ज्यादा उनकी और हम सब की चिंता है। बहु समझ गई यही ठीक था, वो बीमार पढ़ेंगे तो और भी तंग करेंगे।”बूढा सब सुन रहा था। वह समझता था कि उसे ही सब की चिंता है, उसे कोई मानता नहीं।कोई उसकी परवाह नहीं करता इसलिए बात बात पर चिल्लाने लगता था, जबकि ऐसा नहीं था। अब सब उसकी चिंता करते हैं । उसके स्नायू ढीले पड़ गए, वह बिस्तर पर लेट गया, उसने चादर ओढ़ ली। उसका बेटा अब बड़ा हो गया था।

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दोपहर के भोजन के बाद बूढ़ा सो गया था। किसी आहट से उसकी नींद खुल गई थी। बैठक से तेज हंसने की आवाज़ आ रही थी, पड़ोस की महिलाएं थी। छुट्टी के दिन जब बहू घर पर होती है तो वे महिलाएं भी आ जाती हैं। वह उनकी बातें सुनने लगा, उसके बारे में ही बातें हो रही थी।“जो भी कहो तुम्हारा ससुर किच-किच बहुत करता है”.एक महिला बोली। दूसरी ने भी चौका जड़ा, “तुम्हारी हिम्मत है कि उसके साथ रह रही हो, मैं तो कब का ऐसे ससुर जी को उनके गांव छोड़ आती।” बहू की आवाज आई , “  तुम्हारा ससुर पेंशनर था”

“ नहीं”

“ये कमाऊ ससुर है इसकी पेंशन से हमारा आधा खर्च चल जाता है। जैसे-जैसे और बूढा होगा , इसकी पेंशन और बढ़ती जाएगी ।अगर किचकिच सुनने से पैसे मिले तो बुराई क्या है।” बहू बोली.

दूसरी महिलाएं भी बोल रही थी पर वह आगे कुछ सुन नहीं पाया। उसका मन बहू के अर्थशास्त्र पर  उलझ गया था। वह उसका ध्यान रखती थी पर अर्थशास्त्र की सच्चाई जानते हुए भी वह चाहता था कि मात्र ससुर होने के नाते उसका ध्यान रखा जाए। शायद वह पेंशनर नही भी होता तो उसका ध्यान रखा जाता, पर उसका मन अवसाद से भर गया। धीरे धीरे वह डायरी का ऐसा पन्ना बनता जा रहा था जिस पर जीवन की अनुभूतियां कम और हिसाब-किताब अधिक लिखा जा रहा  था ।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

One Comment

  1. जीवन के उत्तरार्ध पर बहुत ही भावुक, संवेदनशील और मार्मिक लघु कथाएं। जीवन के अर्थशास्त्र को पीढ़ीगत अंतराल किस सघन परतों से छिपाने की कोशिश करता है, उसका भी बढ़िया निदर्शन।

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